!! तीन मूर्तियाँ !!
एक राजा था जिसे शिल्प कला अत्यंत प्रिय थी। वह मूर्तियों की खोज में देश-प्रदेश जाया करता था। इस प्रकार राजा ने कई मूर्तियाँ अपने राज महल में लाकर रखी हुई थी और स्वयं उनकी देख रेख करवाते। सभी मूर्तियों में उन्हें तीन मूर्तियाँ जान से भी ज्यादा प्यारी थी। सभी को पता था कि राजा को उनसे अत्यंत लगाव है।
एक दिन जब एक सेवक इन मूर्तियों की सफाई कर रहा था तब गलती से उसके हाथों से उनमें से एक मूर्ति टूट गई। जब राजा को यह बात पता चली तो उन्हें बहुत क्रोध आया और उन्होंने उस सेवक को तुरन्त मृत्युदंड दे दिया। सजा सुनने के बाद सेवक ने तुरन्त अन्य दो मूर्तियों को भी तोड़ दिया। यह देख कर सभी को आश्चर्य हुआ। राजा ने उस सेवक से इसका कारण पूछा, तब उस सेवक ने कहा - "महाराज! क्षमा कीजियेगा, यह मूर्तियाँ मिट्टी की बनी हैं, अत्यंत नाजुक हैं। अमरता का वरदान लेकर तो आई नहीं हैं। आज नहीं तो कल टूट ही जाती अगर मेरे जैसे किसी प्राणी से टूट जाती तो उसे अकारण ही मृत्युदंड का भागी बनना पड़ता। मुझे तो मृत्यु दंड मिल ही चुका हैं इसलिए मैंने ही अन्य दो मूर्तियों को तोड़कर उन दो व्यक्तियों की जान बचा ली।
यह सुनकर राजा की आँखें खुली की खुली रह गई उसे अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने सेवक को सजा से मुक्त कर दिया। सेवक ने उन्हें साँसों का मूल्य सिखाया, साथ ही सिखाया की न्यायाधीश के आसन पर बैठकर अपने निजी प्रेम के चलते छोटे से अपराध के लिए मृत्युदंड देना उस आसन का अपमान हैं। एक उच्च आसन पर बैठकर हमेशा उसका आदर करना चाहिये। राजा हो या कोई भी अगर उसे न्याय करने के लिए चुना गया हैं तो उसे न्याय के महत्व को समझना चाहिये। मूर्ति से राजा को प्रेम था लेकिन उसके लिए सेवक को मृत्युदंड देना न्याय के विरुद्ध था। न्याय की कुर्सी पर बैठकर किसी को भी अपनी भावनाओं से दूर हट कर फैसला देना चाहिये।
राजा को समझ आ गया कि मुझसे कई गुना अच्छा तो वो यह सेवक था जिसने मृत्यु के इतना समीप होते हुए भी परहित का सोचा! राजा ने सेवक से पूछा कि अकारण मृत्यु को सामने पाकर भी तुमने ईश्वर को नही कोसा, तुम निडर रहे, इस संयम, समस्वस्भाव तथा दूरदृष्टि के गुणों के वहन की युक्ति क्या है? सेवक ने बताया कि आपके यहाँ काम करने से पहले मैं एक अमीर सेठ के यहां नौकर था। मेरा सेठ मुझसे तो बहुत खुश था लेकिन जब भी कोई कटु अनुभव होता तो वह ईश्वर को बहुत गालियाँ देता था।
एक दिन सेठ ककड़ी खा रहा था । संयोग से वह ककड़ी कड़वी थी। सेठ ने वह ककड़ी मुझे दे दी। मैंने उसे बड़े चाव से खाया जैसे वह बहुत स्वादिष्ट हो। सेठ ने पूछा – “ककड़ी तो बहुत कड़वी थी। भला तुम ऐसे कैसे खा गये ?” तो मैने कहा – “सेठ जी आप मेरे मालिक है। रोज ही स्वादिष्ट भोजन देते है। अगर एक दिन कुछ कड़वा भी दे दिए तो उसे स्वीकार करने में क्या हर्ज है?" राजा जी इसी प्रकार अगर ईश्वर ने इतनी सुख–सम्पदाएँ दी है, और कभी कोई कटु अनुदान दे भी दे तो उसकी सद्भावना पर संदेह करना ठीक नहीं। जन्म, जीवनयापन तथा मृत्यु सब उसी की देन है।
*शिक्षा:-*
असल में यदि हम समझ सके तो जीवन में जो कुछ भी होता है, सब ईश्वर की दया ही है। ईश्वर जो करता है अच्छे के लिए ही करता है! यदि सुख दु:ख को ईश्वर का प्रसाद समझकर संयम से ग्रहण करें तथा हर समय परहित का चिंतन करें।
*सदैव प्रसन्न रहिये - जो प्राप्त है, पर्याप्त है।*
*जिसका मन मस्त है - उसके पास समस्त है।।*
बन्दर और बन्दरिया की सोच
आज बन्दर और बन्दरिया के विवाह की वर्षगांठ थी। बन्दरिया बड़ी खुश थी। एक नज़र उसने अपने परिवार पर डाला। तीन प्यारे-प्यारे बच्चे, नाज उठाने वाला साथी, हर सुख दुख में साथ देने वाली बन्दरों की टोली। पर फिर भी काश मैं मनुष्य होती तो कितना अच्छा होता। आज केक काटकर सालगिरह मनाते दोस्तों के साथ पार्टी करते।हाय कितना मजा आता।
बन्दर ने अपनी बन्दरिया को देखकर तुरंत भांप लिया कि इसके दिमाग में जरूर कोई ख्याली पुलाव पक रहा है। उसने तुरंत टोका---"अजी सुनती हो। ये दिन में सपने देखना बन्द करो। जरा अपने बच्चों को भी देख लो। जाने कहां भटक रहे हैं। मैं जा रहा हूँ बस्ती में, कुछ खाने का सामान लेकर आऊंगा। आज तुम्हें कुछ अच्छा खिलाने का मन कर रहा है। "
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बन्दरिया बुरा सा मुंह बनाकर चलदी अपने बच्चों के पीछे। जैसे जैसे सूरज चढ़ रहा था उसका पारा भी चढ़ रहा था। अच्छे पकवान के विषय में सोचती तो मुंह में पानी आ जाता।" पता नहीं मेरा बन्दर आज मुझे क्या खिलाने वाला है। अभी तक नहीं आया। " जैसे ही उसे अपना बन्दर आता दिखा झट से पहुंच गई उसके पास। " क्या लाए हो जी मेरे लिए। दो ना, मुझे बड़ी भूख लगी है। ये क्या तुम तो खाली हाथ आ गये।" "हां, कुछ नहीं मिला। यहीं जंगल से कुछ लाता हूँ।" "नहीं चाहिए मुझे कुछ भी। सुबह तो मजनू बन रहे थे अब साधू क्यों बन गए।" अरी भाग्यवान जरा चुप भी रह लिया कर। पूरे दिन कच कच किये रहती है।" "हां हां क्यों नहीं मैं ही ज्यादा बोलती हूँ। पूरा दिन तुम्हारे परिवार की देखरेख करती हूं। तुम्हारे बच्चों के आगे पीछे दौड़ती रहती हूं। इसने उसकी टांग खींची, उसने इसकी कान खींची, सारा दिन झगड़े सुलझाती हूं।"
"अब बस भी कर, मुंह बंद करेगी तभी तो मैं बोलूंगा। गया था मैं तेरे लिए पकवान लाने शर्मा जी के छत पर। रसोई की खिड़की से एक आलू का पराठा झटक भी लिया था मैं ने। पर तभी शर्मा जी की बड़ी बहू की आवाज़ सुनाई पड़ी - - -" अरे अम्मा जी अब क्या बताऊँ ये और बच्चे नाश्ता कर चुके हैं। मैं ने भी खा लिया है और आपके लिए भी एक पराठा रखा था मैं ने, पर खिड़की से बन्दर उठा ले गया। अब क्या करूं, फिर से चूल्हा चौका तो नहीं कर सकती। आप देवरानी जी के वहाँ जाकर खालें।"
"पर मुझे दवा खानी है बेटा।" "तो मैं क्या करूं अम्मा जी। वैसे भी आप शायद भूल गयीं हैं आज से आपको वहीं खाना है। एक महीना पूरा हो गया है आप को मेरे यहाँ खाते हुए। देवरानी जी तो शुरू से ही चालाक हैं वो नहीं आयेंगी आपको बुलाने। पर तय तो यही हुआ था कि एक महीना आप यहाँ खायेंगी और एक महीना वहां।" अम्मा जी के आंखों में आंसू थे। वे बोल नहीं पा रहीं थीं। बड़ी बहू फिर बोली---"ठीक है अभी नहीं जाना चाहती तो रुक जाइये। मैं दो घंटे बाद दोपहर का भोजन बनाऊंगी तब खा लीजिएगा।"
बन्दर ने कहा कि मुझसे यह सब देखा नहीं गया। और मैं ने पराठा वहीं अम्मा जी के सामने गिरा दिया। बन्दरिया के आंखों से आंसू बहने लगे। उसे अपने बन्दर पर बड़ा गर्व हो रहा था। बोली---"ऐसे घर का अन्न हम नहीं खायेंगे जहां मां को बोझ समझते हैं। अच्छा हुआ जो हम मानव नहीं हुए ।
कहानी की सीख- ये कहानी हमे समझाती है कि अगर जानवर होकर एक बन्दर बड़ो की कद्र करना जानता है तो फिर मानव के अंदर से मानवता ख़त्म कैसे हो रही है। वो अपने माँ बाप की, अपने से बड़ो की इज्जत क्यों नहीं करता, उनकी देखभाल क्यों नहीं करता।
क्यों वो अपने बच्चो को ऐसे संस्कार विरासत मे दे रहा है कि जब स्वयं उसका बुढ़ापा आएगा तो उसी के बच्चे उसके साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार करें।
इसलिए अपने बड़ो की स्वाभिमान कद्र और इज्जत करना सीखे..!!
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