कॉलेज में जब भी आशी कैंपस के बाहर दीवार के पास खड़ी होकर सिगरेट सुलगाती, तो लोग नजरें फेर लेते।
कुछ लड़के फुसफुसाते,
"बड़ी तेज़ है यार ये…"
कुछ लड़कियाँ नाक सिकोड़तीं —
"इतनी बेहया! लड़की होकर सिगरेट!"
किसी ने कभी ये नहीं पूछा कि सिगरेट के उस धुएँ में आखिर वो क्या छुपा रही है।
भाग 2: पहली बातचीत — एक नए नज़रिए की शुरुआत
नीरज, कॉलेज का शांत और संवेदनशील लड़का, उसे अक्सर नोट करता था।
नज़रों में नहीं… उसकी आँखों में।
एक दिन जब आशी अकेली बैठी थी, नीरज पास आया और कहा —
"एक सिगरेट मुझे भी दे दो…"
आशी चौंकी।
"तू तो संस्कारी लगता है…"
नीरज मुस्कुराया,
"मैं पीना नहीं चाहता… बस समझना चाहता हूँ कि तू क्यों पीती है।"
वो कुछ पल चुप रही… फिर बोली —
"कल पूछना… आज नहीं कह पाऊँगी।"
भाग 3: वो बात जो किसी को नहीं बताई थी
अगली शाम, कॉलेज के पीछे की वही दीवार।
आशी ने कहा,
"जब मैं 14 साल की थी, तो मेरे नजदीकी रिश्तेदार ने मेरे साथ कुछ ऐसा किया जो आज भी मैं रात में सोचकर कांप जाती हूँ।"
नीरज सन्न रह गया।
"मैंने माँ से कहा… पर उन्होंने कहा, 'ऐसी बातें घर की इज़्ज़त बिगाड़ती हैं। भूल जा।'"
उसके बाद आशी चुप हो गई थी… और अंदर से टूट गई थी।
"तब पहली बार मैंने पापा की अलमारी से सिगरेट निकाली… और खुद को सज़ा देने लगी।"
भाग 4: सिगरेट नहीं, चीख़ थी वो
"हर कश… मुझे अंदर से कुछ सेकेंड्स के लिए मारता है।
हर धुंआ… मेरे साथ हुआ सब कुछ धुंधला करता है।
मैं जी नहीं रही… बस सुलग रही हूँ।"
नीरज की आँखें भर आईं।
वो बोला,
"तू अगर चीखती, रोती, गाली देती… तो शायद दुनिया तेरे दर्द को समझ लेती।
लेकिन तूने सिगरेट पकड़ ली… और सबने तुझे ‘तेज़ लड़की’ बना दिया।"
भाग 5: एक छोटा सा बदलाव
उस दिन के बाद नीरज रोज़ उसके पास आता — सिगरेट नहीं मांगता, बस चुपचाप बैठता।
धीरे-धीरे, आशी सिगरेट जलाती… पर बुझा देती।
फिर एक दिन, उसने नीरज को देखा और कहा —
"तू जानता है नीरज, तूने मुझे पीना नहीं छोड़ा… मुझे महसूस करवाया कि मैं अभी भी किसी की परवाह के लायक हूँ।"
भाग 6: जब सिगरेट जली नहीं… और रोशनी हुई
कॉलेज के आखिरी दिन, आशी ने नीरज को एक छोटा डिब्बा थमाया।
अंदर… उसकी आखिरी सिगरेट थी।
एक चिट्ठी थी साथ:
"इसमें नफरत भी है… और राहत भी।
नफरत उस समाज से जिसने मुझे सुना नहीं।
राहत उस दोस्त से जिसने मुझे छुआ भी नहीं, पर फिर भी मुझे समझा।"
भाग 7: आज की आशी — एक बदली हुई लौ
5 साल बाद, आशी अब एक NGO चलाती है — उन लड़कियों के लिए जो चुपचाप सहती रही हैं।
हर नई लड़की को वो एक खाली सिगरेट पैकेट देती है, और कहती है —
"इसमें दर्द मत भरना… हिम्मत भरो। मैं भी कभी तुम्हारी जैसी थी… लेकिन अब मैं जलती नहीं, जगाती हूँ।"
अंतिम पंक्तियाँ — जो सोच को बदल दें
🕯️ हर सिगरेट पीने वाली लड़की ‘आज़ाद’ नहीं होती… कई बार वो सबसे ज़्यादा क़ैद होती है — अपने ही दर्द में।
💔 उसकी उंगलियों में जलती सिगरेट मत देखो… उसकी आँखों में छुपे आंसू पढ़ो।
क्योंकि कुछ लोग अपने ज़ख्म दिखा नहीं पाते — बस सुलगते रहते हैं।
शायद किसी और आशी को उसकी सिगरेट बुझाने का कारण मिल जाए…
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