दुःख का कारण

दुःख का कारण


एक शहर में एक आलीशान और शानदार घर था. वह शहर का सबसे ख़ूबसूरत घर माना जाता था. लोग उसे देखते, तो तारीफ़ किये बिना नहीं रह पाते.।


एक बार घर का मालिक किसी काम से कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर चला गया।


कुछ दिनों बाद जब वह वापस लौटा, तो देखा कि उसके मकान से धुआं उठ रहा है. करीब जाने पर उसे घर से आग की लपटें उठती हुई दिखाई पड़ी. उसका ख़ूबसूरत घर जल रहा था. वहाँ तमाशबीनों की भीड़ जमा थी, जो उस घर के जलने का तमाशा देख रही थी.।


अपने ख़ूबसूरत घर को अपनी ही आँखों के सामने जलता हुए देख वह व्यक्ति चिंता में पड़ गया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करे? कैसे अपने घर को जलने से बचाये? वह लोगों से मदद की गुहार लगाने लगा कि वे किसी भी तरह उसके घर को जलने से बचा लें.।


उसी समय उसका बड़ा बेटा वहाँ आया और बोला, “ पिताजी, घबराइए मत. सब ठीक हो जायेगा।


इस बात पर कुछ नाराज़ होता हुआ पिता बोला, “कैसे न घबराऊँ? मेरा इतना ख़ूबसूरत घर जल रहा है। 


बेटे ने उत्तर दिया, “पिताजी, माफ़ कीजियेगा. एक बात मैं आपको अब तक बता नहीं पाया था. कुछ दिनों पहले मुझे इस घर के लिए एक बहुत बढ़िया खरीददार मिला था. उसने मेरे सामने मकान की कीमत की ३ गुनी रकम का प्रस्ताव रखा।

सौदा इतना अच्छा था कि मैं इंकार नहीं कर पाया और मैंने आपको बिना बताये सौदा तय कर लिया।”


ये सुनकर पिता की जान में जान आई. उसने राहत की सांस ली और आराम से यूं खड़ा हो गया, जैसे सब कुछ ठीक हो गया हो. अब वह भी अन्य लोगों की तरह तमाशबीन बनकर उस घर को जलते हुए देखने लगा।


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तभी उसका दूसरा बेटा आया और बोला, “पिताजी हमारा घर जल रहा है और आप हैं कि बड़े आराम से यहाँ खड़े होकर इसे जलता हुआ देख रहे हैं. आप कुछ करते क्यों नहीं?”


“बेटा चिंता की बात नहीं है. तुम्हारे बड़े भाई ने ये घर बहुत अच्छे दाम पर बेच दिया है. अब ये हमारा नहीं रहा. इसलिए अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता.” पिता बोला.।


“पिताजी भैया ने सौदा तो कर दिया था. लेकिन अब तक सौदा पक्का नहीं हुआ है।. अभी हमें पैसे भी नहीं मिले हैं. अब बताइए, इस जलते हुए घर के लिए कौन पैसे देगा?”


यह सुनकर पिता फिर से चिंतित हो गया और सोचने लगा कि कैसे आग की लपटों पर काबू पाया जाए. वह फिर से पास खड़े लोगों से मदद की गुहार लगाने लगा.।


तभी उसका तीसरा बेटा आया और बोला, “पिता जी घबराने की सच में कोई बात नहीं है. मैं अभी उस आदमी से मिलकर आ रहा हूँ, जिससे बड़े भाई ने मकान का सौदा किया था.। उसने कहा है कि मैं अपनी जुबान का पक्का हूँ. मेरे आदर्श कहते हैं कि चाहे जो भी हो जाये, अपनी जुबान पर कायम रहना चाहिए. इसलिए अब जो हो जाये, जबान दी है, तो घर ज़रूर लूँगा और उसके पैसे भी दूंगा.”।


पिता फिर से चिंतामुक्त हो गया और घर को जलते हुए देखने लगा.।


शिक्षा


मित्रों, एक ही परिस्थिति में व्यक्ति का व्यवहार भिन्न-भिन्न हो सकता है और यह व्यवहार उसकी सोच के कारण होता है. उदाहारण के लिए जलते हुए घर के मालिक को ही लीजिये. घर तो वही था, जो जल रहा था।


लेकिन उसके मालिक की सोच में कई बार परिवर्तन आया और उस सोच के साथ उसका व्यवहार भी बदलता गया. असल में, जब हम किसी चीज़ से जुड़ जाते हैं, तो उसके छिन जाने पर या दूर जाने पर हमें दुःख होता है. लेकिन यदि हम किसी चीज़ को ख़ुद से अलग कर देखते हैं, तो एक अलग सी आज़ादी महसूस करते हैं और दु:ख हमें छूता तक नहीं है. इसलिए दु:खी होना और ना होना पूर्णतः हमारी सोच और मानसिकता (mindset) पर निर्भर करता है. सोच पर नियंत्रण रखकर या उसे सही दिशा देकर हम बहुत से दु:खों और परेशानियों से न सिर्फ बच सकते हैं, बल्कि जीवन में नई ऊँचाइयाँ भी प्राप्त कर सकते हैं।


मेरी शादी को लगभग 6 महीने हो चुके थे। अपनी पसंद की शादी करने के लिए मैंने बहुत पापड़ बेले थे। हमारे घर में यह पहली ऐसी शादी थी, जो घर वालों की मर्जी से नहीं हुई थी। लड़की मैंने खुद पसंद की थी।  

मुश्किलें तो बहुत आईं, सभी को मनाने में, लेकिन लंबे समय की कोशिश के बाद मां-बाबा मान गए और फिर धीरे-धीरे बाकी रिश्तेदार भी। 


मैंने अपनी मर्जी से शादी तो कर ली, लेकिन 6 महीने के बाद महसूस हुआ कि बहुत सारी बातें मैंने नजरअंदाज कर दीं, जो परिवार में रहने के लिए जरूरी होती हैं।  

मां ने तो बहुत समझाया था, लेकिन मैंने अपनी जिद पकड़ रखी थी। आज 6 महीने बाद जब उन सारी बातों पर विचार करता हूं, तो लगता है कि कई गलतियां हो गईं।  


तब्बुसम जब हमारे घर में नई-नई आई थी, तो मां-बाबा ने उसे बहुत प्यार दिया और घर के रीति-रिवाज सिखाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।  

लेकिन तब्बुसम ने कई बार बचपना दिखाया। शादी से पहले जैसा उसका बर्ताव था, वैसा ही शादी के बाद भी रहा। उसने कभी यह महसूस नहीं किया कि अब वह एक परिवार का हिस्सा है और उसे कुछ जिम्मेदारियां निभानी चाहिए।  


मां अक्सर कहती थीं, "बेटा, तुम्हारी बहू सजने-संवरने पर ज्यादा ध्यान देती है, और घर के काम में उसका योगदान बहुत कम है। पहले मैं सारा काम खुद करती थी, लेकिन बहू के आने के बाद थोड़ा आराम तो मिलना चाहिए।"  


मैं सोच में पड़ गया कि तब्बुसम को कैसे समझाऊं। आखिरकार, एक दिन मैंने उसे अपने पास बैठा लिया और पूछा, "तब्बुसम, जो खाना तुम खाती हो, वह कौन बनाता है?"  

उसने जवाब दिया, "मां बनाती हैं।"  

फिर मैंने पूछा, "कपड़े कौन धोता है?"  

उसने कहा, "मां धोती हैं।"  

मैंने पूछा, "घर की साफ-सफाई कौन करता है?"  

उसने जवाब दिया, "मां करती हैं।"  


फिर मैंने उससे पूछा, "तुम दिनभर क्या करती हो? तुम्हारा मन कमरे में अकेले नहीं लगता?"  

उसने जवाब दिया, "मैं आपके ऑफिस जाने के बाद अपना कमरा ठीक करती हूं, नहा-धोकर तैयार होती हूं। फिर मां जी नाश्ते के लिए आवाज देती हैं, मैं नाश्ता करके कमरे में आ जाती हूं और टीवी देखती हूं या इंटरनेट पर कुछ शो देख लेती हूं।"  


मैंने उससे कहा, "अगर हम मां-बाबा से अलग रहे, तो कैसा लगेगा?"  

उसने कहा, "यह तो अच्छा ही होगा। कम से कम मैं खुलकर जी तो पाऊंगी।"  


मैंने उससे पूछा, "अगर अलग रहेंगे, तो खाना कौन बनाएगा?"  

उसने जवाब दिया, "हम नौकर रख लेंगे।"  


तब मैंने कहा, "क्या तुम इस घर को अपना घर नहीं समझती?"  

उसने कहा, "समझती हूं। जब आप मेरे हैं, तो आपका सब कुछ मेरा है।"  

मैंने उससे कहा, "जब यह घर तुम्हारा है, तो इसका ध्यान कौन रखेगा? क्या तुम इसे नौकरों के हवाले करना चाहोगी?"  

उसने जवाब दिया, "नहीं, यह तो गलत होगा।"  


फिर मैंने उसे समझाया, "मां इस घर को अपना मानकर सारा काम करती हैं। अगर तुम भी उनकी मदद करोगी, तो उन्हें थोड़ा आराम मिलेगा। यह घर हमारा है, और हमें इसे मिलजुलकर संभालना चाहिए। जरूरत पड़ने पर हम नौकर रख लेंगे, लेकिन तुम्हारा योगदान भी जरूरी है।"  


तब्बुसम को अपनी गलती का अहसास हुआ। उसकी आंखों में हल्की शर्मिंदगी थी। उसने मां के पास जाकर माफी मांगी, और मां ने उसे प्यार से गले लगा लिया।  

अगले दिन से तब्बुसम ने घर के कामों में मां की मदद करनी शुरू कर दी। अब दोनों मिलकर काम करतीं और समय पर आराम करतीं।  

इससे न केवल घर का माहौल बेहतर हुआ, बल्कि मेरे मन का बोझ भी हल्का हो गया। मुझे लगा कि मैंने सही निर्णय लिया था और अब हमारा परिवार एक नई शुरुआत के साथ खुशहाल हो गया था।


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