नीलम दुविधा में फँस गई कि वेटिंग रूम से उठकर इंटरव्यू के लिए अंदर जाए या नहीं? उसने राकेश को उसी कमरे में जाते देखा था जहाँ नौकरी चाहनेवालों का साक्षात्कार चल रहा था। नीलम के मन में कई विचार उथल-पुथल मचा रहे थे।
कुछ साल पहले की बात है, नीलम एक प्रतिष्ठित कंपनी में अच्छी खासी तनख्वाह पर काम करती थी। उसके और राकेश के रिश्ते की बात चली थी। दोनों एक-दूसरे से मिले भी थे। लेकिन नीलम ने यह कहकर शादी से इनकार कर दिया था कि राकेश का वेतन उससे कम था। उस वक्त उसे लगा था कि एक ऐसी जिंदगी चाहिए जिसमें उसका जीवनसाथी उससे अधिक कमा सके, ताकि उसे समाज में गर्व महसूस हो।
लेकिन समय ने ऐसा मोड़ लिया कि नीलम की कंपनी में छँटनी हो गई और वह भी इस चपेट में आ गई। अब वह दूसरी नौकरी के लिए संघर्ष कर रही थी। इस इंटरव्यू में आकर पता चला कि जिस कंपनी में वह जॉब के लिए आई थी, राकेश उसी कंपनी में काम करता था और इंटरव्यू लेनेवाली टीम में शामिल था। एकबारगी नीलम के मन में आया कि राकेश के सामने अपनी बेइज्जती कराने से बेहतर है कि वह वापस चली जाए, लेकिन नौकरी की जरूरत ने उसे वहां रुकने पर मजबूर कर दिया।
अपनी बारी आने पर वह इंटरव्यू कमेटी के सामने बैठी। टीम के सदस्य सवाल पूछ रहे थे, और नीलम ने उन्हें अच्छे से जवाब दिए। तभी राकेश ने सीधे उसपर सवाल दागा, "आप हमारे पैकेज पर काम करने के लिए तैयार हैं?"
राकेश के इस सवाल ने मानो नीलम की दुखती रग पर हाथ रख दिया। उसने पुरानी बातों को याद करते हुए अपने मन में उठी कड़वाहट को दबाया और सधे हुए स्वर में जवाब दिया, "जी, मैं तैयार हूँ। पैकेज तो योग्यता पर भी निर्भर करता है। मुझे एक मौका दीजिए, मैं खुद को साबित करने की पूरी कोशिश करूँगी।"
राकेश के कारण नीलम को नौकरी मिल गई, लेकिन उसे यह समझ में आ गया था कि यह नौकरी उसके पुराने निर्णय का परिणाम भी हो सकती है। संयोगवश उसे राकेश की टीम में काम करने का मौका मिला, और वह उसकी अधीनस्थ बन गई।
पहले ही दिन, राकेश ने उससे सीधे सवाल किया, "मेरे साथ काम करने में कोई संकोच तो नहीं? वैसे अब तो मेरा पैकेज भी आपसे ज्यादा है।"
नीलम ने थोड़ी देर सोचा, फिर हिम्मत बटोरकर बोली, "आप पुरानी बातों को नहीं भूले हैं। तब से आज तक बहुत कुछ बदल गया है। मुझे अपनी गलती का एहसास हो चुका है। महिलाओं की बराबरी की चाहे कितनी भी बातें की जाएं, लेकिन जब मौका आता है, तो हम खुद ही पीछे हट जाते हैं। मैं उस वक्त ऐसे जीवनसाथी की तलाश में थी जो मुझसे अधिक कमा सके और उम्र में मुझसे बड़ा हो। लेकिन आज मुझे समझ में आ गया है कि यह सोच गलत थी। आखिर क्यों जरूरी है कि पति उम्र में बड़ा हो और ज्यादा कमाता हो? क्यों स्त्रियां खुद को पुरुषों से कमतर समझें?"
राकेश, जो इतनी साफगोई की उम्मीद नहीं कर रहा था, थोड़ी देर चुप रहा, फिर धीरे से बोला, "मैं अभी भी उस जीवनसाथी की तलाश में हूँ जो मुझे मेरी कमियों के साथ स्वीकार कर सके। वैसे बता दूं, अगर उस दिन आपने मुझसे शादी से मना नहीं किया होता, तो शायद मैं आज यहाँ नहीं होता। और हाँ, आपके रेज़्यूमे से पता चला कि आप अभी भी सिंगल हैं। क्या हम आज रात डिनर पर चल सकते हैं?"
नीलम ने मुस्कुराते हुए कहा, "शायद यह हमारे लिए दूसरा मौका है।"
क्या नीलम का जवाब बताने की जरूरत है? शायद नहीं, क्योंकि कभी-कभी जिंदगी हमें दूसरा मौका देती है, और यह सिर्फ हम पर निर्भर करता है कि हम उसे कैसे अपनाते हैं।
"सुमन, यार जल्दी करो, ऑफिस के लिए लेट हो रहे हैं।"
"बस, अभी थोड़ी परफ्यूम लगा लूं।"
"आज फिर नहीं नहाई क्या?"
"नहीं अनीश, समय ही नहीं मिला। सुबह तुम तो…!"
"ठीक है, बाबा, अब जल्दी चलो।"
"अनीश…"
"हाँ?"
"आज शाम को डॉक्टर के पास भी जाना है, याद है न?"
"क्या करोगी… कोई फायदा तो है नहीं।"
"फिर भी हमें कोशिश तो करनी ही चाहिए।"
"अब तो सबने कहना भी छोड़ दिया है बच्चे के लिए। मम्मी तो जैसे टूट सी गई हैं।"
"मैं भी…"
"लेकिन शादी के समय जिद तो तुम्हारी भी थी न कि जब तक अपना घर और गाड़ी नहीं होंगे, हम फैमिली बढ़ाने के बारे में नहीं सोचेंगे।"
"थी तो… मगर अब मुझे बहुत खालीपन लगता है। जब भी छोटे-छोटे बच्चे खेलते हुए देखती हूं, मन करता है काश मेरा भी कोई बच्चा होता… मगर…"
"शादी के बाद के पाँच साल का प्लान बनाया था हमने। पहले गाड़ी ली, फिर लोन लेकर घर खरीदा। घर को चीजों से तो भर लिया, मगर जब बच्चे की किलकारी की बात आई, तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी… अब सारी चीजों से चिढ़ सी होती है। जिंदगी जैसे मशीन बन कर रह गई है। सुबह से रात तक ऑफिस आओ, खाओ, सो जाओ, फिर उठकर चले जाओ।"
"भाग्य इतना खराब है कि आईवीएफ तकनीक भी कारगर साबित नहीं हुई… शायद हर खुशी पैसे से नहीं खरीदी जा सकती। और ऊपर से लोन ले लिया, अब उसे चुकाते रहो।"
"हाँ सुमन, हमने जिंदगी के खूबसूरत दिनों को इस लोन की चुकाने की जद्दोजहद में गुजार दिया। ऐसा लगता रहा, जब तक लोन न निपटे, मानो सब कुछ उधार का हो… खुशी भी ढंग से नहीं मना सके। और अब जब सब कुछ अपना हो गया, तो वास्तविक सुख… संतान का सुख हमसे छिन गया।"
अनीश ने घर का दरवाजा लॉक किया और दोनों बेजार सी जिंदगी जीने के लिए चल दिए। उनके दिलों में एक गहरा खालीपन था, जिसे भरा नहीं जा सकता था। अब, वे एक ऐसी दुनिया में जी रहे थे, जहाँ भौतिक सुख-सुविधाओं की भरमार थी, लेकिन उनकी आत्मा की सबसे बड़ी ख्वाहिश अधूरी रह गई थी। दोनों ने महसूस किया कि जीवन में असली खुशी किसी भी कीमत पर नहीं खरीदी जा सकती, और अब, यह समझ उनके रिश्ते की नींव में दरारें डाल रही थी।
जिंदगी की इस जद्दोजहद में, सुमन और अनीश ने बहुत कुछ खो दिया था, और अब, वे बस किसी तरह से इस बेजान सी जिंदगी को जीने की कोशिश कर रहे थे।
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