सुधीर जी अपनी पत्नी माधवी के साथ अपनी रिटायर्ड जिंदगी बहुत हंसी-खुशी बिता रहे थे। उनके तीनों बेटे, अनुराग, सुशांत, और अभिनव, अलग-अलग शहरों में अपने-अपने परिवारों के साथ बस गए थे। हालांकि, सुधीर जी ने एक नियम बना रखा था कि दीपावली पर उनके तीनों बेटे सपरिवार उनके पास आते थे। वो एक सप्ताह मानो किसी उत्सव की तरह बीत जाता था, और किसी को पता ही नहीं चलता कि समय कैसे उड़ गया।
लेकिन समय की नज़र उनकी खुशियों पर पड़ गई। अचानक माधवी को दिल का दौरा पड़ा, और एक झटके में सुधीर जी की सारी खुशियाँ बिखर गईं।
तीनों बेटे दुखद समाचार पाकर दौड़े आए। सबने मिलकर क्रिया-कर्म किया और शाम को सब एकत्रित हुए। माहौल में एक भारीपन था, जिसे कोई भी शब्दों में व्यक्त नहीं कर पा रहा था।
सुशांत की पत्नी, आशा, ने बात उठाई, "पापा, अब आप यहाँ अकेले कैसे रह पाएंगे? आप हमारे साथ चलिए।"
"नहीं बहू, अभी मुझे यहीं रहने दो। इस घर में अपनापन महसूस होता है। बच्चों की गृहस्थी में...।" कहते-कहते सुधीर जी चुप हो गए।
अनुराग कुछ कहने की कोशिश करने लगा, पर सुधीर जी ने उसे हाथ के इशारे से चुप कर दिया।
"बच्चों, अब तुम्हारी माँ हम सबको छोड़कर हमेशा के लिए जा चुकी है। उसकी कुछ चीजें हैं, जो मैं चाहता हूँ कि तुम लोग आपस में बाँट लो। हमसे अब उनकी साज-संभाल नहीं हो पाएगी," सुधीर जी ने धीरे से कहा, और अलमारी से कुछ निकालकर लाए।
मखमल के थैले में एक सुंदर चाँदी का श्रंगारदान था और एक बहुत पुरानी सोने के पट्टे वाली हाथ की घड़ी थी। ये दोनों चीजें उनके जीवन की अमूल्य धरोहर थीं। बच्चों की नजरें इन बेशकीमती वस्तुओं पर टिक गईं।
अभिनव, सबसे छोटा बेटा, जोश में बोला, "अरे ये घड़ी तो माँ रचना को देना चाहती थी।"
सुधीर जी ने शांत स्वर में कहा, "और सब कुछ तो मैं तुम लोगों को बराबर से दे ही चुका हूँ। इन दो चीजों से तुम्हारी माँ को बहुत लगाव था। वह इन्हें बड़े चाव से कभी-कभी निकालकर देखती थीं। अब सवाल यह है कि उनकी दो चीजों को तुम तीनों में कैसे बाँटूं?"
सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। माहौल में एक अजीब सी खामोशी थी।
तभी सुशांत, जो मंझला बेटा था, संकोच से बोला, "ये श्रंगारदान माँ अक्सर रचना को देने की बात करती थीं।"
लेकिन समस्या तो बनी हुई थी। सुधीर जी अब सोच रहे थे कि आशा को क्या दें।
उनके मन के भाव को पढ़ते हुए आशा ने कहा, "पापा, आप शायद मेरे बारे में सोच रहे हैं। आप श्रंगारदान रचना को और हाथ वाली घड़ी काव्या को दे दीजिए... माँ भी तो यही चाहती थीं।"
सुधीर जी ने थोड़ी उलझन में पूछा, "लेकिन, काव्या, तुम्हें क्या दूँ? समझ नहीं आ रहा।"
काव्या, जो अनुराग की पत्नी थी, मुस्कुराते हुए बोली, "पापा, आपके पास एक और अनमोल चीज़ है, और वह अम्मा जी हमेशा से मुझे ही देना चाहती थीं।"
सबकी आँखें हैरानी से खुल गईं। दोनों बहुएँ, आशा और रचना, तो बेहद हैरान-परेशान हो गईं। अब कौन सा बेशकीमती पिटारा खुलेगा?
काव्या ने मुस्कुराते हुए सबकी जिज्ञासा शांत की, "वो सबसे अनमोल चीज़ तो आप स्वयं हैं, पापा। पिछली बार अम्मा जी ने मुझसे कहा था, 'मेरे बाद पापा की देखभाल तेरे जिम्मे।' अब आप उनकी इच्छा का पालन कीजिए और हमारे साथ चलिए, इसी वक्त, बिना कोई देरी किए।"
काव्या के इन शब्दों ने सुधीर जी की आँखें नम कर दीं, और वहाँ मौजूद सभी लोग सिर झुकाए खड़े रहे। उन्होंने महसूस किया कि असली धरोहर सिर्फ सोने-चाँदी की चीज़ें नहीं होतीं, बल्कि वे रिश्ते होते हैं जो किसी की ज़िंदगी को संवारते हैं, उसे सच्चे मायनों में मूल्यवान बनाते हैं।
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