माखन चोर की लीला

माखन चोर की लीला

वृंदावन नगरी में हर ओर हरी-भरी गलियाँ, फूलों से लदे वृक्ष और यमुना का मधुर कलकल प्रवाह। उस रमणीय स्थान पर नंद बाबा और माता यशोदा का घर था। उनके आँगन में खेलते हुए नन्हें-से कृष्ण अपने छोटे-छोटे पगों से सबका हृदय मोह लेते थे। कान्हा की बाल लीलाएँ इतनी प्यारी थीं कि पूरे गोकुल के लोग उन्हें देखते ही सब दुख भूल जाते।


कृष्ण को सबसे अधिक प्रिय था – माखन। गोपियाँ बड़े मन से अपने घरों में माखन मथतीं, पर जैसे ही उनके मटके भरते, कान्हा और उनके सखा गुपचुप घर में घुस जाते। कभी ओखली पर चढ़कर, कभी किसी दोस्त के कंधों पर चढ़कर वे मटके तक पहुँचते और माखन निकाल-निकालकर खाते। कभी-कभी वे गायों और बछड़ों को भी माखन खिलाते।


गोपियों के लिए यह रोज़ का झंझट बन गया। वे जहाँ भी माखन छिपातीं, कान्हा की टोली उसे ढूँढ ही लेती। कभी माखन खाने के बाद मटके फोड़ देते, कभी घर में ही हँसी-मज़ाक करते भाग जाते। गोपियाँ जब कृष्ण को देखतीं तो गुस्सा भी आता और उनके चेहरे की मुस्कान भी छिपाए न छिपती।


एक दिन तो हद ही हो गई। गोपियों ने सुबह-सुबह ही देखा कि उनका माखन गायब है। सबने मिलकर निश्चय किया कि अब वे सीधे यशोदा मैया से शिकायत करेंगी। गली-गली गाती-बजाती, वे नंदभवन पहुँचीं।


गोपियाँ बोलीं—

“अरी यशोदा! तुम्हारे लाल ने फिर हमारा माखन चुराया है। हमने कितनी मेहनत से मथकर रखा था, पर कान्हा और उसके मित्र आकर सब खा गए। कभी-कभी तो हमें खाने को कुछ बचता ही नहीं।”


माता यशोदा ने मुस्कराकर कहा—

“अरी गोपियों! तुम सब तो मेरे लल्ला पर झूठा इल्ज़ाम लगाती हो। मेरा कान्हा इतना भोला है, वह माखन क्यों चुराएगा?”


इतना सुनते ही एक गोपी ने कहा—

“अगर तुम नहीं मानतीं, तो आओ हमारे घर। मटके पर नन्हें पाँवों के निशान हैं, और कान्हा की उँगलियों के छाप भी। तुम्हें सबूत चाहिए तो वही देख लो।”


यशोदा समझ गईं कि इस बार मामला सच है। उन्होंने कृष्ण को ढूँढा। इधर कान्हा माँ की खोजबीन देख समझ गए और भागकर आँगन के कोने में छिप गए। परंतु कौन उनकी चपलता को रोक पाए? यशोदा रस्सी लेकर दौड़ीं और अंततः कान्हा को पकड़ ही लिया।


कृष्ण की बड़ी-बड़ी कमल जैसी आँखें मासूमियत से भरी थीं। वे बार-बार कहते—

“मैया, मैंने कुछ नहीं किया। मैं तो बस खेलने गया था। माखन तो शायद बछड़ों ने खाया होगा।”


यशोदा बोलीं—

“नटखट! रोज़ माखन चोरी करते हो और अब झूठ भी बोलते हो? आज तो तुम्हें बाँधना ही पड़ेगा।”


उन्होंने ओखली के पास रस्सी लाई और कृष्ण को बाँधने लगीं। पर जैसे ही रस्सी बाँधतीं, वह छोटी पड़ जाती। चाहे जितनी रस्सियाँ जोड़ देतीं, रस्सी हमेशा दो अंगुल छोटी रह जाती। यह देखकर यशोदा हैरान रह गईं। वे थककर पसीने से भीग गईं।


कृष्ण यह सब देख मुस्कराते रहे। अंत में जब यशोदा का मातृ हृदय थककर करुणा से भर गया, तभी भगवान ने अपनी माया हटाई और रस्सी का सिरा मिल गया। यशोदा ने कान्हा को ओखली से बाँध दिया।


कृष्ण शरारती मुस्कान से बोले—

“मैया, मैं माखन(नवनीत) क्यों चुराऊँ? मैंने तो सबको अपना प्रेम दिया है, अपनी बाँसुरी दी है, अपनी लीलाएँ दी हैं। जब मैं तुम्हें सबकुछ दे सकता हूँ, तो क्या थोड़ा-सा माखन नहीं ले सकता? मैं तो केवल अपना हिस्सा लेने आया था।”


यशोदा का हृदय भर आया। उन्होंने कृष्ण को गले से लगा लिया। उसी क्षण वे समझ गईं कि उनका लाल कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि स्वयं नारायण हैं, जो सबके हृदय का माखन—निर्मल प्रेम और भक्ति—चुराते हैं।


गोपियाँ भी यह दृश्य देखकर भाव-विभोर हो गईं। अब उन्हें शिकायत करने के बजाय आनंद हुआ कि स्वयं भगवान उनके घर आते हैं और उनके माखन को छूते हैं।


शिक्षा


यह कथा केवल बाल-लीला नहीं है। इसका गहरा अर्थ है—कृष्ण माखन के बहाने हमारे भीतर के लोभ, अहंकार और स्वार्थ को चुराते हैं। वे हमें निर्मल, निष्कपट और प्रेम से भरपूर बनाना चाहते हैं। जब हम अपने हृदय का माखन—भक्ति और श्रद्धा—भगवान को अर्पित कर देते हैं, तब जीवन का हर क्षण मधुर हो जाता है।


पूर्वजों का आशीर्वाद और सेवा का फल । सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है।


यह एक सच्ची और भावनात्मक कहानी है, जो हमें यह सिखाती है कि –


सेवा और त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाते।


पूर्वज सदैव हमारे साथ रहते हैं।


विश्वास, धैर्य और संस्कार ही जीवन की असली पूँजी हैं।


इस कहानी से जुड़कर आप भी महसूस करेंगे कि कैसे पूर्वजों का आशीर्वाद हमारे जीवन की दिशा बदल सकता है। 🙏


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