धरती का रस
बहुत समय पहले की बात है। एक राज्य में एक राजा राज करता था — न्यायप्रिय, पराक्रमी और अपने प्रजाजनों से प्रेम करने वाला।
एक दिन राजा अपने सैनिकों के साथ नगर से बाहर सैर के लिए निकला। धूप बहुत तेज थी, हवा में लू के थपेड़े चल रहे थे।
वापसी के समय सूर्य अस्त होने को था। रास्ते में एक हरे-भरे खेत के पास राजा ने विश्राम करने का विचार किया। पास में ही एक झोंपड़ी थी — मिट्टी की दीवारें, छप्पर की छत और बाहर सूखती कुछ गोबर की उपलियाँ।
राजा ने धीरे से आवाज लगाई —
“अरे माई, ज़रा पानी मिलेगा क्या? बहुत प्यास लगी है।”
अंदर से एक झुर्रियों से भरा, मगर दयालु चेहरा बाहर आया। वह खेत की बूढ़ी मालकिन थी — एक किसान की मां।
बूढ़ी माई ने राजा को देखा, पर पहचान न पाई। उसे लगा, कोई थका हुआ यात्री होगा।
वह मुस्कुराई और बोली,
“पानी तो दूँ बेटा, पर इतनी गर्मी में सादा पानी क्या काम का! ज़रा ठहर, अभी तुझे धरती का असली रस पिलाती हूँ।”
यह कहकर माई ने खेत में जाकर एक ताजा गन्ना तोड़ा, अपने खुरदुरे हाथों से उसे निचोड़ा और एक गिलास रस निकालकर राजा को दिया।
राजा ने गिलास उठाया —
रस ठंडा, मीठा और सुगंध से भरा था। ऐसा लगा मानो सारी थकान मिट गई हो।
राजा ने तृप्त होकर पूछा —
“माई, तुम्हारे राजा तुमसे इस खेत का लगान कितना लेते हैं?”
माई मुस्कुराई —
“हमारा राजा बहुत दयालु है बेटा। बस साल में एक रुपया — पूरे बीस बीघा खेत का।”
राजा थोड़ा चौंका।
“सिर्फ एक रुपया? इतना कम?”
उसके मन में विचार आया — *अगर लगान थोड़ा बढ़ा दिया जाए तो राज्य की आमदनी कितनी बढ़ जाएगी! यह खेत तो रस से भरा पड़ा है, धरती इतनी उपजाऊ है, फिर क्यों न थोड़ा और लिया जाए!*
राजा का मन धीरे-धीरे *लोभ से भरने लगा।*
वह सोचते-सोचते वहीं पेड़ के नीचे लेट गया और आँख लग गई।
कुछ देर बाद जब नींद टूटी तो उसने फिर माई से रस माँगा।
बूढ़ी माई फिर खेत में गई, एक गन्ना तोड़ा, निचोड़ा — पर इस बार मुश्किल से कुछ बूंदें निकलीं।
दूसरा गन्ना तोड़ा, फिर तीसरा... पाँच गन्ने निचोड़ने के बाद जाकर गिलास आधा भर पाया।
राजा ने हैरानी से पूछा —
“माई! अभी थोड़ी देर पहले तो एक गन्ने से पूरा गिलास रस निकल गया था। अब पाँच गन्नों से भी मुश्किल से भरा! ऐसा कैसे?”
माई ने सिर खुजलाया और भोलेपन से बोली —
“बेटा, ये तो मेरी समझ के परे है। धरती का रस तो तब सूखता है जब राजा की नीयत बदल जाती है, जब उसके मन में लोभ या अन्याय का भाव आ जाता है।
पर हमारे राजा तो धर्मात्मा हैं, न्यायप्रिय हैं, फिर ऐसा कैसे हो सकता है?”
यह सुनते ही राजा का दिल काँप उठा।
उसे एहसास हुआ कि धरती की उपज, प्रजा की समृद्धि और राज्य का सुख — सब राजा की नीयत पर निर्भर करता है।
उसने तुरंत निर्णय लिया —
“नहीं! मैं अपने लालच को अपने राज्य की धरती का रस नहीं सुखाने दूँगा।
जो मिल रहा है, वही पर्याप्त है। प्रजा पर बोझ डालना अन्याय है।”
वह मन ही मन मुस्कुराया और मन में प्रण लिया कि अब वह अपने लोगों के हित के लिए ही शासन करेगा, उनके श्रम का नहीं, बल्कि उनके सुख का रक्षक बनेगा।
कहानी से सीख:
1. राजा का धर्म शोषण नहीं, पोषण करना है।
2. जब मन में लोभ और अन्याय का बीज बोया जाता है, तब धरती का रस, जीवन की मिठास सूख जाती है।
3. ईमानदारी, संतोष और दया — यही धरती की सच्ची उर्वरता हैं।
4. जिसने हमें कभी सहारा दिया हो, उसका उपकार नहीं भूलना चाहिए।
कभी-कभी कहानियाँ सिर्फ पढ़ी नहीं जातीं...महसूस की जाती हैं 💔
हर शब्द में एक दर्द है, हर किरदार में एक सच्चाई।
*आओ, पढ़ो वो कहानियाँ जो आँखों को नम और दिल को हल्का कर जाएँ...*
📖 “कहानियाँ जो रुलाकर भी सिखा जाती हैं जीना...”
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