अर्जुन
उत्तर भारत के एक छोटे-से गाँव में अर्जुन नाम का एक युवा रहता था। नाम तो उसका वीर पांडव के जैसा था, लेकिन भीतर से वह बहुत कमजोर और असमंजस में डूबा इंसान था। उसके पिता नहीं थे, माँ ने सिलाई करके उसे पढ़ाया-लिखाया। गाँव के स्कूल में वह पढ़ा लिखा, लेकिन जब रोजगार और जीवन के निर्णय का समय आया, तो उसके मन में डर बैठ गया।
हर दिन वह सुबह खेत की मेड़ पर बैठता और सोचता, “क्या मैं कुछ कर भी पाऊँगा? दुनिया इतनी तेज़ है, लोग चालाक हैं, मेरे पास पैसे नहीं, कोई जुगाड़ नहीं।” हर शाम घर लौटते हुए उसका मन और बोझिल हो जाता। माँ कहती, “बेटा हिम्मत से चल, भगवान पर भरोसा रख।” पर अर्जुन को भरोसा खुद पर ही नहीं था।
एक दिन गाँव में एक साधु बाबा आए। वे वृद्ध थे, शांत थे, और उनका चेहरा अजीब सी रोशनी से भरा था। उन्होंने गाँव के चौपाल पर बैठकर भगवद् गीता का पाठ शुरू किया। अर्जुन चुपचाप सबसे पीछे बैठा रहा। साधु जी ने पढ़ा –
*"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" – अर्थात "तेरा अधिकार सिर्फ कर्म करने में है, फल पर नहीं।"*
अर्जुन चौंका। उसे पहली बार किसी वाक्य ने भीतर से हिला दिया। वह सोचने लगा, “मैं तो अब तक सिर्फ फल की चिंता कर रहा था। ये नौकरी मिलेगी या नहीं, पैसा आएगा या नहीं, लोग क्या कहेंगे। मैंने कर्म ही कहाँ किया?”*
अगले दिन से वह रोज़ चौपाल आता और गीता के उपदेश सुनता। एक दिन साधु जी ने कहा, *“गीता कोई किताब नहीं, ये जीवन की आंख है। अगर समझ में आ जाए तो डर, शंका, मोह सब खत्म हो जाते हैं।”*
उस रात अर्जुन ने पहली बार अपने जीवन का निर्णय खुद लिया। उसने एक पुराना कंप्यूटर दुरुस्त किया, जो उसे एक मास्टर जी ने कभी दे दिया था। इंटरनेट की मदद से डिजिटल दुनिया के बारे में पढ़ना शुरू किया। माँ ने कुछ पैसे जोड़े और उसे एक ऑनलाइन कोर्स के लिए भेजा। अर्जुन ने कोई सोचकर नहीं किया कि सफलता मिलेगी या नहीं – बस खुद से एक वादा किया, *“अब मैं कर्म करूंगा, फल की चिंता नहीं करूंगा।”*
समय लगा, पर दो साल बाद अर्जुन वही युवक था जो अब गाँव के बच्चों को डिजिटल शिक्षा देता था, फ्रीलांस काम करता था और सबसे बड़ी बात – हर रविवार को गाँव की चौपाल पर गीता का एक श्लोक समझाकर सुनाता था।
एक दिन एक लड़का उसके पास आया और बोला, *“भैया, मुझसे कुछ नहीं होगा। मैं बहुत कमजोर हूँ।”* अर्जुन मुस्कराया और बोला, *“तू जानता है, गीता में क्या कहा गया है? ‘न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्’ – कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। तू कर्म कर, बाकी भगवान जानें।”*
लड़के की आँखों में आशा की चमक आ गई। अर्जुन ने फिर कहा, *“मुझे देख। मैं भी डरा हुआ अर्जुन था। लेकिन गीता ने मुझे अर्जुन से ‘वीर अर्जुन’ बना दिया।”*
निष्कर्ष:
गीता का उपदेश सिर्फ युद्ध के मैदान के लिए नहीं है।
यह जीवन की हर लड़ाई में मार्ग दिखाने वाली रौशनी है। अर्जुन की तरह हर युवा के जीवन में एक युद्ध होता है—डर का, मोह का, असमंजस का। लेकिन जो गीता को समझ लेता है, वह हार नहीं मानता।
कर्म पर ध्यान दो, फल की चिंता छोड़ दो – यही गीता का सार है। और यही जीवन का सबसे बड़ा सत्य भी।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें