... फ़िल्म के बारे में...
गिरीश कासारवल्ली की ‘गुलाबी टॉकीज’ आपको अनेक तरीक़ों से फ़िल्मों के जादू की याद दिलाती है। 2008 में रिलीज़ हुई ‘गुलाबी टॉकीज़’ को इसके लेखक-निर्देशक के साथ-साथ इसकी मुख्य अभिनेत्री उमाश्री के लिए भी व्यापक प्रशंसा मिली। कन्नड़ लेखिका वैदेही की एक कहानी पर आधारित यह फ़िल्म 1990 के दशक के उत्तरार्ध तटीय कर्नाटक में कुंदापुरा के एक मछुआरों के गाँव के इर्द-गिर्द घूमती है। कहानी में दोस्ती, बड़े और छोटे पर्दे के जुनून, सांप्रदायिक तनाव और आर्थिक हितों के टकरावों के साथ एक अकेली स्त्री और सामाजिक पूर्वाग्रहों के तत्व भी बुने हुए हैं।
गुलाबी (इस भूमिका के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली उमाश्री), मिडवाइफ़ का काम करने वाली एक मुस्लिम स्त्री है जो बहुसंख्यक हिन्दू मछुआरों के गाँव में रहती है। उसे इस बात पर फ़ख़्र है कि वह धर्म, जाति और अमीर-ग़रीब का ख़याल किये बिना गाँव भर की औरतों और बच्चों की देखभाल करती है। उसका पति, मूसा (केजी कृष्णमूर्ति) उसे छोड़कर पास में ही एक दूसरी औरत और बच्चे के साथ रहने चला गया है और वह तट के किनारे एक झोंपड़ी में अकेली रहती है। गुलाबी को बच्चे के नज़दीक जाने से भी रोक दिया जाता है।
लेकिन गुलाबी का एक और प्यार है, जो उसके निजी जीवन की परेशानाइयों से उसे सुकून दिलाता है। गाँव में हर कोई यह जानता है - गुलाबी को फ़िल्में बहुत पसंद हैं। लेकिन एक दिन उसके इस शौक़ में बुरी तरह ख़लल पड़ जाता है। तीन लोग उसे सिनेमाघर से उठा लाते हैं। एक अमीर परिवार की महिला को प्रसव पीड़ा हो रही है और गुलाबी को थिएटर से बाहर निकालकर नाव में बिठाकर परिवार के घर ले जाया जाता है। अपनी खीझ वह छिपा नहीं पाती है। "मेरे फ़िल्म देखते तुम्हें प्रसव पीड़ा नहीं होनी चाहिए थी," वह बच्चा पैदा कराते हुए युवती से कहती है। परिवार की मुखिया उसे मनाने के लिए वादा करती है कि अब वह अपने घर पर ही फ़िल्में देख पायेगी।
गुलाबी की झोपड़ी में जल्द ही एक रंगीन टेलीविजन और सैटेलाइट डिश आ जाती है, और वह पूरे गाँव में चर्चा का विषय बन जाती है। महिलाएँ धारावाहिक, ऐक्शन सीक्वेंस और प्रेमी युगलों के नाच-गाने देखने के लिए जुटने लगती हैं। हालाँकि कुछ लोग बाहर ही रहते हैं। गुलाबी के मज़हब के कारण वे उसके घर में दाखिल होने से इनकार करते हैं, लेकिन स्क्रीन की एक झलक पाने के लिए खिड़की से झाँकते हैं। उसका टीवी गाँव के लिए एक थिएटर बन जाता है। गुलाबी अपने दरवाज़े के बाहर राजकुमार का पोस्टर चिपकाती है और एक बूढ़ी पड़ोसी महिला का दिया नाम "गुलाबी टॉकीज" चल निकलता है। टेलीविजन सिर्फ़ जीवन की नीरसता से बचने का मौका ही नहीं देता। गुलाबी की एक करीबी दोस्त नेत्रू, जो अपने ससुरालवालों के ज़ुल्म सहती है, परदे पर दमदार स्त्रियों को मर्दों, सासों और तमाम बाधाओं के सामने ऐसे साहस के साथ खड़ी होते हुए देखकर चकित होती है, जिसका वह बस सपना ही देख सकती है।
लेकिन जहाँ एक स्क्रीन उन्हें जीवन की दुश्वारियों को मिलकर भुलाने का मौक़ा देती है, वहीं दूसरी स्क्रीन पर दिख रही घटनाएँ उन्हें और तटीय गाँवों को एक बदसूरत वास्तविकता में वापस खींच लाती है। 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए कारगिल युद्ध के बाद देशभर में राजनीतिक और सांप्रदायिक तनाव बढ़ने लगता है। और हर शाम की खबरों में ऐसे दृश्य सामने आते हैं, जो हज़ारों किलोमीटर दूर कर्नाटक के तटीय इलाक़ों में भी मुस्लिम-विरोधी भावनाओं को हवा देते हैं। गुलाबी का अलग हुआ पति मूसा एक सफल फ़िशिंग एजेंट है। वह एक व्यापारी सुलेमान के मातहत काम करता है जो खाड़ी के एक देश में रहकर अपना कारोबार चला रहा है। एक छोटे हिंदू व्यापारी, वासन्ना का व्यवसाय कम होता जा रहा है, जबकि मूसा का व्यवसाय फल-फूल रहा है। धोखाधड़ी और ग़द्दारी के आरोपों के बीच तनाव और बढ़ता है और एक दिन मूसा को कुछ लोग घेरकर पीटते हैं द्वारा पीटा जाता है और वह गाँव छोड़कर भाग जाता है। इसी बीच, नेत्रू भी अपने घर से भाग जाती है, जिससे कई लोग ग़लतफ़हमी में यह मान लेते हैं कि दोनों एक साथ भागे हैं।
कासरवल्ली अपनी फ़िल्मों में स्त्री पात्रों और उनके सामने आने वाली चुनौतियों को उजागर करने के लिए जाने जाते हैं। कई दृश्य बिना कुछ कहे इन समस्याओं को दर्शाते हैं, जैसे एक मछुआरे की पत्नी को उसका पति सरेआम पीटता है जबकि गाँव की अन्य स्त्रियाँ उसकी तकलीफ़ पर हँसती हैं। हंसमुख, मधुर स्वभाव वाली और तेज़तर्रार, गुलाबी ऐसी स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकती जहाँ उसका गाँव, उसके दोस्त, उसके पड़ोसी अब उसे न चाहें। फिर भी मूसा की ग़ैरमौजूदगी में गुलाबी को उसके अपराध का खामियाजा भुगतना पड़ता है। जब उसे उसके घर से निकाला जा रहा होता है, तो वह अपने बर्तन फेंकने वाले पुरुषों में से एक को याद दिलाती है कि उसके हाथ ही उसे इस दुनिया में लाये थे। "अगर मैं नहीं होती, तो तुम भी यहाँ नहीं होते," वह कहती है।
देर तक याद रह जाने वाले फ़िल्म के अन्तिम कुछ क्षण क्षणों में, गुलाबी को गाँव से दूर भेजा जा रहा है। जब एक किशोर उससे पूछता है कि सब ठीक होने के बाद क्या वह वापस आयेगी, तो वह बस मुस्कुरा देती है, शायद यह जानते हुए कि यह सिनेमा नहीं है और इस कड़वी सच्चाई से बचने का कोई रास्ता नहीं है।
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हमारा सुझाव है कि आप फ़िल्म और सबटाइटल्स कंप्यूटर या लैपटॉप पर डाउनलोड करके इसे देखें। फ़िल्म और सबटाइटल्स की फ़ाइलें एक फ़ोल्डर में डाउनलोड करने के बाद VLC Media Payer या ऐसे ही किसी अन्य प्रोग्राम के ज़रिए इसे देखा जा सकता है। VLC में आप इसके सबटाइटल्स का फ़ॉण्ट भी सुविधानुसार बड़ा कर सकते और इसका रंग भी बदल सकते हैं या पढ़ने में आसानी के लिए सबटाइटल्स के पीछे बैकग्राउण्ड भी लगा सकते हैं। इसके लिए VLC के Tools मेनू में जाकर Preferences और फिर Subtitles/OSD पर क्लिक करें और सुविधानुसार चयन करें।
इस फ़िल्म में सबटाइटल्स थोड़े आगे-पीछे हैं। VLC मीडिया प्लेयर में आप वीडियो चलने के दौरान कीबोर्ड शॉर्टकट G या H से इसे ठीक कर सकते हैं: शुरू के करीब 80 मिनट तक सबटाइटल्स स्क्रीन पर डायलॉग के कुछ बाद आ रहे हैं – इसके लिए शुरू में ही G बटन को कई बार दबाएँ जब तक स्क्रीन पर Subtitle Delay -4000 ms लिखा हुआ न दिखे। बाद के करीब 40 मिनट में सबटाइटल्स डायलॉग से ज़रा पहले आ रहे हैं – इसके लिए H बटन को कुछ बार दबाकर इसे एडजस्ट करें। (इस असुविधा के लिए हमें खेद है, सारे टाइमकोड ठीक करने में बहुत ज़्यादा समय लगेगा, इसलिए फ़िलहाल इसे ऐसे ही शेयर कर रहे हैं।)
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