वो गुलमोहर वाला पेड़
हर साल जब अप्रैल की तपती दोपहरें दस्तक देती हैं, तो शहर के कोने में खड़ा एक पुराना गुलमोहर का पेड़ कुछ ज्यादा ही याद आने लगता है। वो पेड़, जो अब बूढ़ा हो चला है, लेकिन उसकी यादें आज भी हरे पत्तों सी ताज़ा हैं।
मैं बात कर रही हूँ अपने बचपन के उस छोटे से शहर की, जहाँ सड़कें टूटी हुई थीं, लेकिन दिल पूरे थे। मोहल्ले की गली नंबर तीन के कोने पर खड़ा वो गुलमोहर का पेड़, मेरे बचपन का सबसे करीबी दोस्त था।
तू फिर वहीं बैठा है?
"हाँ न! जब तक गुलमोहर में फूल हैं, तब तक तो मैं यहीं मिलूँगा," मैं हँसते हुए बोला।
ये बात तब की है जब मैं 12 साल का था। नाम था मेरा – आरव, और मेरी सबसे अच्छी दोस्त – तृषा। हम दोनों हर दिन स्कूल के बाद वहीं पेड़ के नीचे मिलते थे। उसका टिफिन आज भी आधा मेरे लिए होता था और मेरा झोला उसके कॉमिक्स से भरा रहता था।
तृषा मुस्कराती हुई बोलती, “कभी-कभी सोचती हूँ, ये पेड़ हमें कितना कुछ जानता है।”
“और सुनता भी है… शायद हमारी बातें इसके फूलों में बंद हो जाती हैं,” मैं कहता और गुलमोहर की एक पंखुड़ी उसकी किताब में रख देता।
“यादें… बस ऐसी ही होनी चाहिए न? सुर्ख, सजीव और अपने ही रंग में चुप।”
समय बीतता गया।
हम बड़े होने लगे और ज़िंदगी की कक्षाओं में उलझते गए। स्कूल की बेल अब कॉलेज की घंटियों में बदल गई थी। और धीरे-धीरे गुलमोहर का वो पेड़ बस किसी कोने की चुप कहानी बनता गया।
पर मैंने तृषा से वादा किया था—
“एक दिन जब हम बहुत बड़े हो जाएँगे, मैं तुझे उसी गुलमोहर के नीचे मिलने आऊँगा।”
दस साल बीत गए।
मैं अब दिल्ली में एक एडवर्टाइजिंग कंपनी में काम करता था। रोज़ की भागदौड़, मीटिंग्स और वक़्त की कमी में तृषा बस व्हाट्सएप के चैट बॉक्स तक सिमट गई थी।
लेकिन उस दिन कुछ अलग हुआ।
"गुलमोहर फिर से खिला है, आरव।"
तृषा का मैसेज आया।
दिल एकदम से रुक सा गया।
“मैं आ रहा हूँ…” मैंने फौरन रिप्लाई किया।
जब मैं वापस अपने शहर पहुँचा, तो वो हवा… वो गंध… और वो गली नंबर तीन… सब वैसा ही था। बस, थोड़ा सूनापन ज़्यादा था।
वो पेड़ अब थोड़ा और झुका हुआ लगता था। शायद उम्र ने उसकी टहनियों को थका दिया था।
मैंने देखा, तृषा वहीं बैठी थी। वही नीली सलवार, वही झोला और वही मुस्कान।
"तू आया..." “तेरे बुलावे पर कोई कैसे न आए?” मैं बैठ गया उसके पास।
कुछ देर चुप्पी रही, फिर उसने मेरी तरफ देखा, “याद है वो गर्मी की छुट्टियाँ जब हम दिनभर यहीं खेलते थे?”
“और वो दिन जब तूने पहली बार कहा था – ‘तू मेरी सबसे ख़ास है’?”
“अब भी हूँ?” उसने हल्के से पूछा।
मैंने गुलमोहर की एक पंखुड़ी उसकी हथेली पर रख दी – “हमेशा।”
तृषा ने धीमे से कहा, “आरव, मैं अगले महीने अमेरिका जा रही हूँ। रिसर्च फेलोशिप मिली है।”
मैं बस देखता रहा… जैसे कुछ कहने के लिए शब्द ही कम पड़ गए।
“तेरे बिना ये पेड़ अधूरा लगेगा…” मैंने धीरे से कहा।
वो मुस्कराई, “हमने इसे अपनी यादों से सींचा है। ये कभी अधूरा नहीं होगा।”
हमने उस दिन बहुत बातें कीं।
पहली बारिश, पहली लड़ाई, गुलमोहर की पत्तियों से बनाए गए ताज, वो छोटी सी पेंटिंग जो उसने मेरे लिए बनाई थी… सब याद आया।
फिर उसने अपनी डायरी निकाली – “ये तेरे लिए…”
डायरी के पहले पन्ने पर लिखा था:
"अगर कभी थक जाओ, तो इस पेड़ के नीचे आ जाना, मैं नहीं तो मेरी यादें ज़रूर मिलेंगी..."
तीन साल बीत गए।
तृषा अब अमेरिका में थी। एक सफल रिसर्चर, एक नई ज़िंदगी में व्यस्त। हम कभी-कभी बात कर लेते थे।
लेकिन आज फिर गुलमोहर खिला था। मैं वहीं बैठा था, उसके भेजे खतों को पढ़ते हुए।
एक बच्चे ने पास आकर पूछा –
"अंकल, आप रोज़ यहाँ क्यों बैठते हैं?"
मैं मुस्कराया –
"क्योंकि यहीं मेरा बचपन रहता है।"
और तब समझ आया…
कुछ रिश्ते प्यार में नहीं, यादों में अमर होते हैं।
कुछ लोग हमारी ज़िंदगी से चले जाते हैं, लेकिन हमारी रूह में कहीं गुलमोहर की तरह खिले रहते हैं—सुर्ख, सजीव, और सदा सुंदर।
हर साल जब अप्रैल की तपती दोपहरें दस्तक देती हैं, तो शहर के कोने में खड़ा एक पुराना गुलमोहर का पेड़ कुछ ज्यादा ही याद आने लगता है। वो पेड़, जो अब बूढ़ा हो चला है, लेकिन उसकी यादें आज भी हरे पत्तों सी ताज़ा हैं।
मैं बात कर रही हूँ अपने बचपन के उस छोटे से शहर की, जहाँ सड़कें टूटी हुई थीं, लेकिन दिल पूरे थे। मोहल्ले की गली नंबर तीन के कोने पर खड़ा वो गुलमोहर का पेड़, मेरे बचपन का सबसे करीबी दोस्त था।
तू फिर वहीं बैठा है?
"हाँ न! जब तक गुलमोहर में फूल हैं, तब तक तो मैं यहीं मिलूँगा," मैं हँसते हुए बोला।
ये बात तब की है जब मैं 12 साल का था। नाम था मेरा – आरव, और मेरी सबसे अच्छी दोस्त – तृषा। हम दोनों हर दिन स्कूल के बाद वहीं पेड़ के नीचे मिलते थे। उसका टिफिन आज भी आधा मेरे लिए होता था और मेरा झोला उसके कॉमिक्स से भरा रहता था।
तृषा मुस्कराती हुई बोलती, “कभी-कभी सोचती हूँ, ये पेड़ हमें कितना कुछ जानता है।”
“और सुनता भी है… शायद हमारी बातें इसके फूलों में बंद हो जाती हैं,” मैं कहता और गुलमोहर की एक पंखुड़ी उसकी किताब में रख देता।
“यादें… बस ऐसी ही होनी चाहिए न? सुर्ख, सजीव और अपने ही रंग में चुप।”
समय बीतता गया।
हम बड़े होने लगे और ज़िंदगी की कक्षाओं में उलझते गए। स्कूल की बेल अब कॉलेज की घंटियों में बदल गई थी। और धीरे-धीरे गुलमोहर का वो पेड़ बस किसी कोने की चुप कहानी बनता गया।
पर मैंने तृषा से वादा किया था—
“एक दिन जब हम बहुत बड़े हो जाएँगे, मैं तुझे उसी गुलमोहर के नीचे मिलने आऊँगा।”
दस साल बीत गए।
मैं अब दिल्ली में एक एडवर्टाइजिंग कंपनी में काम करता था। रोज़ की भागदौड़, मीटिंग्स और वक़्त की कमी में तृषा बस व्हाट्सएप के चैट बॉक्स तक सिमट गई थी।
लेकिन उस दिन कुछ अलग हुआ।
"गुलमोहर फिर से खिला है, आरव।"
तृषा का मैसेज आया।
दिल एकदम से रुक सा गया।
“मैं आ रहा हूँ…” मैंने फौरन रिप्लाई किया।
जब मैं वापस अपने शहर पहुँचा, तो वो हवा… वो गंध… और वो गली नंबर तीन… सब वैसा ही था। बस, थोड़ा सूनापन ज़्यादा था।
वो पेड़ अब थोड़ा और झुका हुआ लगता था। शायद उम्र ने उसकी टहनियों को थका दिया था।
मैंने देखा, तृषा वहीं बैठी थी। वही नीली सलवार, वही झोला और वही मुस्कान।
"तू आया..." “तेरे बुलावे पर कोई कैसे न आए?” मैं बैठ गया उसके पास।
कुछ देर चुप्पी रही, फिर उसने मेरी तरफ देखा, “याद है वो गर्मी की छुट्टियाँ जब हम दिनभर यहीं खेलते थे?”
“और वो दिन जब तूने पहली बार कहा था – ‘तू मेरी सबसे ख़ास है’?”
“अब भी हूँ?” उसने हल्के से पूछा।
मैंने गुलमोहर की एक पंखुड़ी उसकी हथेली पर रख दी – “हमेशा।”
तृषा ने धीमे से कहा, “आरव, मैं अगले महीने अमेरिका जा रही हूँ। रिसर्च फेलोशिप मिली है।”
मैं बस देखता रहा… जैसे कुछ कहने के लिए शब्द ही कम पड़ गए।
“तेरे बिना ये पेड़ अधूरा लगेगा…” मैंने धीरे से कहा।
वो मुस्कराई, “हमने इसे अपनी यादों से सींचा है। ये कभी अधूरा नहीं होगा।”
हमने उस दिन बहुत बातें कीं।
पहली बारिश, पहली लड़ाई, गुलमोहर की पत्तियों से बनाए गए ताज, वो छोटी सी पेंटिंग जो उसने मेरे लिए बनाई थी… सब याद आया।
फिर उसने अपनी डायरी निकाली – “ये तेरे लिए…”
डायरी के पहले पन्ने पर लिखा था:
"अगर कभी थक जाओ, तो इस पेड़ के नीचे आ जाना, मैं नहीं तो मेरी यादें ज़रूर मिलेंगी..."
तीन साल बीत गए।
तृषा अब अमेरिका में थी। एक सफल रिसर्चर, एक नई ज़िंदगी में व्यस्त। हम कभी-कभी बात कर लेते थे।
लेकिन आज फिर गुलमोहर खिला था। मैं वहीं बैठा था, उसके भेजे खतों को पढ़ते हुए।
एक बच्चे ने पास आकर पूछा –
"अंकल, आप रोज़ यहाँ क्यों बैठते हैं?"
मैं मुस्कराया –
"क्योंकि यहीं मेरा बचपन रहता है।"
और तब समझ आया…
कुछ रिश्ते प्यार में नहीं, यादों में अमर होते हैं।
कुछ लोग हमारी ज़िंदगी से चले जाते हैं, लेकिन हमारी रूह में कहीं गुलमोहर की तरह खिले रहते हैं—सुर्ख, सजीव, और सदा सुंदर।
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