आधी रात का समय था

आधी रात का समय था, जब निर्मला की नींद अचानक टूट गई। वह अनायास ही अपने बेटे की चिंता में घिर गई। जब उसने देखा कि उसका बेटा, जो अब एक जिम्मेदार और वयस्क पुरुष था, अपनी पत्नी के साथ कमरे में सोने की बजाय, उसी की तरह अपने पुराने बिस्तर पर आड़ा-तिरछा लेटा हुआ है, तो उसकी ममता भरी आँखों में एक अनजाना सा भय तैरने लगा।

निर्मला के दिल में चिंता की लहरें उठने लगीं। उसने धीरे से बेटे के माथे पर हाथ फेरा और धीमी आवाज़ में पूछा, "बेटा, तू कुछ परेशान सा लगता है...?"


बेटे, जिसका नाम विवेक था, हल्की नींद में ही था। उसने अपनी मां की आवाज़ को पहचानते हुए कहा, "नहीं, मां...," और फिर करवट लेते हुए, माँ के और भी करीब आ गया।


पिछले महीने निर्मला के पति, यानी विवेक के पिता का निधन हो गया था। उस दिन के बाद से निर्मला की नींद में स्थायी हल्कापन आ गया था। वह रातों को बस यूँ ही करवटें बदलती रहती थी। लेकिन इन दिनों, उसे बेटे की बढ़ती बेचैनी ने और भी चिंतित कर दिया था।


निर्मला ने विवेक की ओर फिर से सवाल उछाला, "आजकल तू मेरे पास क्यों आकर सो जाता है? क्या बहू से कोई बात हो गई है?"


विवेक ने इस सवाल को भी टालने की कोशिश करते हुए कहा, "नहीं, माँ... ऐसा कुछ नहीं है।"


निर्मला ने महसूस किया कि बेटा कुछ छिपा रहा है। उसने पास ही रखे तांबे के लोटे से एक घूंट पानी पिया और बिस्तर पर सीधा लेटने की बजाय एक तकिया अपने पीछे रख दीवार का सहारा ले कर बैठ गई। वह बेटे से एकदम साफ-साफ बात करना चाहती थी।


"फिर क्या बात है, बेटा? मुझे बता, तुझे क्या परेशान कर रहा है?" माँ का यह सवाल इस बार एक माँ के आदेश जैसा लगा।


विवेक को मां की घबराहट का अहसास हुआ। उसने अब और कोई बहाना नहीं बनाया और मां के हाथों को अपने सीने पर रखकर बोला, "मां, आपको याद है, जब मैं बड़ा हो रहा था, पापा ने मेरा कमरा अलग कर दिया था?"


"हाँ, बेटा, तुम्हीं ने तो जिद की थी अलग कमरे की," निर्मला ने हल्की मुस्कान के साथ याद दिलाया।


"हां मां, लेकिन फिर भी, जब मैं सो जाता था, आप अक्सर मेरे कमरे में आकर मेरे माथे को सहलातीं और वहीं मेरे बिस्तर पर सो जाती थीं," विवेक ने कहा। उसकी आवाज़ में एक अजीब सी नर्मी और पुरानी यादों की मिठास थी।


"हां, और फिर सुबह तुम मुझसे एक सवाल पूछते थे, याद है?" निर्मला ने बेटे की स्मृतियों को कुरेदने की कोशिश की।


विवेक ने हंसते हुए कहा, "हां मां, याद है। मैं हमेशा आपसे पूछता था, 'क्या आप पापा से नाराज हो?'"


निर्मला की आँखों में एक पुरानी याद की चमक उभर आई। उसने मुस्कुराते हुए कहा, "बिल्कुल सही, बेटा। लेकिन तुझे ऐसा क्यों लगता था कि मैं पापा से नाराज़ हूं?"


आज इतने सालों बाद, शायद निर्मला भी जानना चाहती थी कि उसके बेटे के मन में उस समय क्या चलता था!


विवेक ने माँ के हाथों को और भी मजबूती से पकड़ते हुए कहा, "क्योंकि, मां, मैं आपको हमेशा पापा के साथ देखना चाहता था।"


निर्मला के चेहरे पर इस जवाब ने एक हल्की सी उदासी और सुकून की मुस्कान बिखेर दी। उसने बेटे के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और बोली, "बेटा, जैसे तुम मुझे और पापा को साथ देखना चाहते थे, वैसे ही मैं भी तुझे और तेरी पत्नी को हमेशा साथ देखना चाहती हूं।"


विवेक ने मां की गोद में सिर रखते हुए कहा, "मां, तब आप पापा को अकेले छोड़कर मेरे पास क्यों आ जाती थीं?"


इस सवाल का जवाब शायद वर्षों से विवेक के मन में कैद था, और आज वह जानना चाहता था कि ऐसा क्यों होता था।


निर्मला ने एक गहरी सांस ली और बोली, "बेटा, मुझे डर लगता था कि अकेले कमरे में तुझे कहीं कोई डर न सताए। मैं तुम्हें सुरक्षित महसूस कराना चाहती थी।"


विवेक की आंखों में हल्की नमी आ गई। उसने धीरे से कहा, "मां, अब जब पापा नहीं रहे, मुझे भी डर लगता है।"


निर्मला को बेटे की इस बात ने भीतर तक झकझोर दिया। उसने बेटे से तुरंत पूछा, "क्यों बेटा, तुझे क्या डर सताता है?"


विवेक की आवाज़ में एक अनकही वेदना थी, "मां, अब मुझे डर लगता है कि कहीं आप अपने अकेलेपन से डर न जाओ। इसलिए मैं आपके पास आ जाता हूं, ताकि आप अकेला महसूस न करें।"


इसके आगे विवेक कुछ कह ही नहीं पाया। उसकी आवाज़ टूट गई और माँ-बेटे एक-दूसरे से लिपट कर रो पड़े। दोनों के आंसुओं में उन सारे अनकहे शब्द और भावनाएं बह गईं, जिन्हें वे शायद कभी कह नहीं पाए थे।


माँ और बेटे के बीच के इस संवाद ने उनकी एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदारी और प्रेम को और भी गहरा कर दिया था। वे जानते थे कि जीवन के इस मोड़ पर उन्हें एक-दूसरे का सहारा बनकर आगे बढ़ना है। और अब, उनके दिलों में बस एक ही ख्याल था—कि वे एक-दूसरे के साथ हमेशा खड़े रहेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए।


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