एहसान
घर के अंदर पैर रखा, तो लगा अभी भी गाड़ी में ही बैठी हूं. इतना लंबा सफ़र बैठे-बैठे तय करना. फिर बार-बार उल्टी जैसा लगना. उस पर देवर-देवरानी और बच्चों के सामने बार-बार आलोक का टोकना,
"ये उल्टी-वुल्टी औरतों के नाटक हैं. किसी आदमी को हमने नहीं देखा कि चलती कार में फलाना दिक़्क़त हो रही, ढिकाना हो रहा…"
रास्ते में देवरानी कभी मुझे पानी पिलाती रही, कभी बच्चों को बैग से निकालकर खाना खिलाती रही. घर पहुंचते-पहुंचते सबका दम निकल चुका था. खाना खाने की इच्छा भी नहीं रही थी.
"मम्मा, हम लोग सोएंगे बस सीधे. प्लीज़ खाना पूछना भी मत." बच्चे सीधे अपने कमरे में चले गए.
"भाभी, हम लोग भी कुछ नहीं खाएंगे, आप लेटो जाकर… भाईसाहब के लिए रास्तेवाली कचौड़ी और सब्ज़ी है, हम थाली में बढ़िया से लगाकर दे देंगे." देवरानी ने इतने प्यार से कहा कि आंखें भर आईं. ये बेचारी क्या जाने कि 'भाईसाहब' तो रास्तेवाला खाना देखते ही बिदक जाएंगे, "दस बार वही खाना?" और अगर इन लोगों के लिहाज़ में खा भी लिया, तो दो-तीन दिन पेट पर हाथ फिराते मुझे सुनाएंगे, "बासी कचौड़ी खाई न उस दिन, तभी से दिक़्क़त हो रही."
जी में आया, छोड़ो हटाओ, सुनाते तो वैसे भी हैं किसी-न-किसी बात पर, खाने दो वही कचौड़ी! लेकिन अंदर की अन्नपूर्णा देवी बाहर आकर मुझे उकसाती ही चली जा रही थी, 'दो आलू काट लो, एक मुट्ठी मटर डालकर छौंक दो.. एक तरफ़ दाल रख दो, चार रोटी का आटा गूंथ लो, बस लग जाएगी ताज़ी थाली.'
मैंने घर का जायज़ा लिया, आलोक देवर-देवरानी को घर दिखाते हुए पूरे रौब में थे, "अपने को थीम से बाहर कुछ चलता नहीं. बदलता है तो सब बदलता है, सोफा बदला, तो हमने कहा हटाओ साले को पुरानी सेंटर टेबल, वो भी मैचिंग आएगी…"
वो दोनों थके हुए, उबासी लेते मेहमान 'बहुत बढ़िया', 'बड़ा सुंदर लग रहा है' कहते जा रहे थे. ना उधर आलोक की आत्ममुग्धता रुक रही थी, न इधर मेरे हाथ… गैस के तीनों चूल्हे आंच धधकाते मेरा पूरा सहयोग कर रहे थे.
"भाभी दिनभर यही सब संभालती होंगी, तभी सब इतना चमक रहा है…" देवर की बात सुनकर रोटी बेलते मेरे हाथ थोड़े और तेज़ चलने लगे, तब तक आलोक की आवाज़ आई.
"घर भी संभालती हैं, अपनी क़िस्मत पर इतराती भी हैं… हर किसी के भाग्य में ऐसा घर नहीं होता. वो बात अलग है कि इस बात के लिए एहसान कभी नहीं मानतीं."
एक गंदे मज़ाक के बाद आलोक की हंसी… मेरे हाथों को किसी ने जैसे अचानक रोक दिया! मेरी गृहस्थी, मेरा घर, मेरी पहचान है… हम दोनों ने मिलकर घर बनाया है, बसाया है, इसमें आलोक का एहसान कहां से आ गया? इसका तिनका-तिनका संवारती हूं, क्या मैं भी गिनाया करूं? पता नहीं सफ़र की थकान थी या इन शब्दों की सड़ांध..मन अजीब-सा हो गया. जैसे-तैसे थाली लगाकर आलोक को आवाज़ दी, देखते ही कंधे उचकाए, "ये सब क्यों बनाया, वही रास्ते वाला खा लेता मैं… अच्छा! इन लोगों को इंप्रेस कर रही थी क्या?"
फिर वही कुंठित मानसिकता से भरी बातें, कटाक्ष… मन में कुछ उमड़ने सा लगा. पूरी तन्मयता से आलोक एक के बाद एक रोटी निपटाते जा रहे थे, उनको छोड़कर सब उस भारी माहौल के प्रभाव में थे. देवर साथ देने के लिए एक रोटी जबरन खाने लगा था और देवरानी किचन साफ़ करने में लग गई थी.
"भाभी इतना अच्छा खाना बनाती हैं, तभी भइया बाहर का खाना मन से नहीं खाते…"
मेरी गुम मुस्कान वापस लाने की गरज़ से देवर ने तारीफ़ करते हुए आलोक की ओर देखा. उधर से एक डकार के सिवा कुछ नहीं मिला. मैंने एक ग्लास पानी पीकर अपने अंदर का कुछ बिखरा हुआ समेटा और हंसते हुए जवाब दिया, "हां घर का खाना ये मन से खाते हैं… साथ ही क़िस्मत पर भी इतराते हैं. हर किसी की क़िस्मत में थोड़ी होता कि भले ही बीवी बीमार हो, लेकिन थाली पसंद की मिले…"
आलोक ने मुझे अजीब ढंग से घूरा, उनकी अगली डकार शायद गले में अटक गई थी.. लेकिन मेरे शब्द मेरे गले में नहीं अटके थे, मैंने बात पूरी की,
"हां वो अलग बात है कि इस बात का कभी वो एहसान नहीं मानते!..
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