Mahanayak Eklavya download free hindi pdf, महानायक एकलव्य डाउनलोड फ्री

राघव ने जब घर में कदम रखा, तो वह गुस्से से भरा हुआ था। उसने अपनी टाई उतारते हुए कहा, "ये सब क्या है, मम्मी?" आवाज़ में क्रोध साफ झलक रहा था।


सुनीता देवी, उसकी माँ, किचन में कुछ काम कर रही थीं। बेटे की आवाज़ सुनते ही उन्होंने उसकी ओर देखा और हल्की मुस्कान के साथ बोलीं, "अरे, राघव, आज जल्दी आ गए? क्या हुआ? इतनी नाराज़गी क्यों? साफ़-साफ़ कहो, क्या पूछना चाहते हो?"


राघव ने अपनी टाई उतारते हुए और गुस्से से कहा, "माँ, आपको पता भी है कि आप क्या कर रही हैं? आपको जरा भी शर्म नहीं है क्या?"


सुनीता देवी को यह सुनकर बहुत हैरानी हुई। उन्होंने सोचा कि आखिर ऐसा क्या हुआ है जो उनका बेटा इस तरह से बोल रहा है। उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा, "साफ़-साफ़ बताओ, राघव। ऐसा क्या कर दिया मैंने?"


राघव अब अपनी जगह पर खड़ा हो गया और उसकी आवाज़ और तेज़ हो गई, "आप जानती हैं, माँ। आपको सब पता है, फिर भी आप अनु को हमेशा नीचा दिखाती रहती हो। आपको कभी उसकी बात समझ में नहीं आती।"


सुनीता देवी अब और भी ज्यादा हैरान थीं। उन्होंने पूछा, "मैं उसे नीचा दिखाऊंगी? अपनी बहू को? ऐसा भला मैं क्यों करूंगी? आखिर बात क्या है, बेटा?"

राघव ने गुस्से में जवाब दिया, "जब अनु की सहेलियाँ यहाँ आती हैं, तब आप अचानक उनके सामने आकर नमस्ते करती हैं, और वो भी सीधे पल्ले की साड़ी में, शुद्ध हिंदी बोलते हुए। क्या आपको समझ में नहीं आता कि उनके सामने आपकी इस तरह की बातों से अनु को शर्मिंदगी महसूस होती है? आपको कम से कम इस बात का ख्याल तो रखना चाहिए। और अगर आपको सबसे मिलने का इतना ही शौक है, तो आप अपने पहनावे में थोड़ी तो आधुनिकता लाएँ। मैंने कई बार कहा कि आप पोते से थोड़ा अंग्रेजी सीख लीजिए, 'हाय' और 'हैलो' तो बोल ही सकती हैं।"


सुनीता देवी अब चुप नहीं रह सकीं। उन्होंने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा, "शर्म? वाह बेटा, आज तू अपनी माँ को शर्म सिखाने चला है? जब तेरे पापा के अचानक चले जाने के बाद मैंने तुझे पालने के लिए झाड़ू-पोंछे का काम किया था, तब तूने ये शर्म महसूस नहीं की? जब मैं अपने फटे पुराने कपड़ों में तुझे स्कूल भेजने के लिए पैसे जुटाती थी, तब तेरे दिल में मेरे लिए ये शर्म नहीं आई थी? तब मैं शर्मिंदगी महसूस नहीं करती थी, क्योंकि मेरे लिए तुझे एक अच्छा इंसान बनाना सबसे बड़ी प्राथमिकता थी। और आज, जब मैं अपनी सादगी के साथ रहती हूँ, अपनी भाषा बोलती हूँ, तो तुझे शर्म आ रही है?"


राघव अब भी खड़ा था, लेकिन उसकी आवाज़ कमजोर पड़ चुकी थी। सुनीता देवी ने गहरी सांस लेते हुए कहा, "अगर तुझे शर्म आनी ही है, तो उन लोगों को आनी चाहिए जो आधुनिकता के नाम पर अपनी जड़ों से दूर हो रहे हैं। मैंने हमेशा अपनी संस्कृति को जिया है, और मुझे इसमें कोई शर्म महसूस नहीं होती। मैं अपनी बहू को हमेशा अपनी बेटी मानती हूँ, लेकिन अगर मेरी सादगी से उसे शर्मिंदगी होती है, तो शायद मैंने कुछ गलत किया है।"


राघव अब भी चुप था। सुनीता देवी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, "अगर तुझे लगता है कि मेरे पहनावे या मेरी बातों से तेरी इज्ज़त पर आंच आती है, तो सुन ले बेटा—ये घर मैंने अपने खून-पसीने से बनाया है, और ये मेरे नाम पर है। अगर तुम्हें मेरे साथ रहना मुश्किल लगता है, तो तुम लोग अपना रास्ता चुन सकते हो। लेकिन मैं अपनी पहचान और संस्कृति नहीं छोड़ सकती, चाहे कुछ भी हो जाए।"


इतना कहकर सुनीता देवी कमरे से बाहर चली गईं। राघव अब भी अपनी जगह खड़ा था, और दूसरी तरफ दरवाजे के पीछे खड़ी अनु उसकी बातें सुन रही थी। अनु को अचानक अपनी गलती का एहसास हुआ। वह समझ गई कि सास-ससुर सिर्फ बुजुर्ग नहीं होते, बल्कि वे परिवार की नींव होते हैं, और उनका आदर करना जरूरी होता है।


अनु धीरे से सुनीता देवी के पास गई और उनके पैरों पर गिर गई। उसने कहा, "माँ, मुझे माफ कर दीजिए। मैं ही गलत थी। मैंने आपकी सादगी और आपके त्याग को समझने में बहुत बड़ी चूक कर दी। मैं आपको कभी नीचा नहीं दिखाना चाहती थी, बल्कि आपकी तरह बनना चाहती थी।"


सुनीता देवी ने अनु को गले लगाते हुए कहा, "बेटा, मैंने तुझे हमेशा अपनी बेटी माना है। गलती किससे नहीं होती? बस, अब समझ लो कि इस घर में सादगी और प्यार ही सबसे बड़ा आभूषण है। अगर हम इसे समझ लें, तो हमारा घर स्वर्ग बन जाएगा।"


उस दिन के बाद अनु ने अपनी सोच को बदल दिया। उसे समझ में आ गया कि असली इज्जत आधुनिकता में नहीं, बल्कि सादगी और संस्कारों में है।


एक जुलाहा सूत कातने के लिए रुई लेकर आ रहा था। वह नदी किनारे सुस्ताने के लिए बैठा ही था कि जोर की आँधी आई। आँधी में उसकी सारी रुई उड़ गई। जुलाहा घबराया--अगर बिना रुई के घर पहुँचा तो मेरी पत्नी तो बहुत नाराज़ होगी। घबराहट में उसे कुछ न सूझा। उसने सोचा, यही बोल दूँगा-फुर्र-फुर्र। और वह फुर्र-फुर्र बोलता जा रहा था। आगे एक चिड़ीमार पक्षी पकड़ रहा था।


जुलाहे की फुर्र-फुर्र सुनकर सारे पक्षी उड़ गए। चिड़ीमार को बहुत गुस्सा आया। वह जुलाहे पर बहुत चिल्लाया तुमने मुझे बरबाद कर दिया। आगे से तुम ऐसा कहना, पकड़ो! पकड़ो!


जुलाहा जोर-जोर से “पकड़ो! पकड़ो!" रटता गया। रास्ते में कुछ चोर रुपए गिन रहे थे। जुलाहे की “पकड़ो! पकड़ो!" सुनकर वे घबरा गए। फिर उन्होंने देखा कि अकेला जुलाहा ही चला आ रहा था। चोरों ने उसे पकड़ा और घूरते हुए कहा-यह क्‍या बक रहे हो? हमें मरवाने का इरादा है क्या? तुम्हें कहना चाहिए, इसको रखो, ढेरों लाओ, समझे ?


जुलाहा यही कहता हुआ आगे बढ़ गया-इसको रखो, ढेरों लाओ। जब वह श्मशान के पास से गुजर रहा था तो वहाँ गाँववाले शवों को जला रहे थे। उस गाँव में हैजा फैला हुआ था। लोगों ने जुलाहे को कहते सुना, 'इसको रखो, ढेरों लाओ', तब उन्हें बड़ा गुस्सा आया। वे चिल्लाए, तुम्हें शर्म नहीं आती है? हमारे गाँव में इतना भारी दुख फैला है और तुम ऐसा बकते हो। तुम्हें कहना चाहिए यह तो बड़े दुख की बात है।


जुलाहा शर्म से पानी-पानी हो गया। वह यही रटता हुआ आगे बढ़ने लगा-यह तो बड़े दुख की बात है। कुछ देर बाद वह एक बरात के पास से गुजरा। बरातियों ने उसे यह कहते हुए सुना, 'यह तो बड़े दुख की बात है, यह तो बड़े दुख की बात है।' इतना सुनकर वे जुलाहे को पीटने के लिए तैयार हो गए। बड़ी मुश्किल से उसने सफाई दी तो उन्होंने कहा-- सीधे से आगे बढ़ो, और हाँ, अब तुम यह रटते जाना-भाग्य में हो तो ऐसा सुख मिले।


अब जुलाहा यही रटता हुआ अपनी राह चल पड़ा। चलते-चलते अँधेरा हो गया। घर से निकलते समय उसकी पत्नी ने उससे यही कहा था कि “जहाँ रात हो जाए वहीं सो जाना।' जुलाहा थक भी गया था। वह वहां सो गया।"


अगले दिन जब सुबह उसके मुँह पर पानी पड़ा, तब जुलाहा हड़बड़ा कर उठा। आँखें खोलीं तो देखता ही रह गया-यह तो उसी का घर था। और अभी-अभी उसकी पत्नी ने ही उस पर पानी फेंका था। जुलाहे के मुँह से निकला-भाग्य में हो तो ऐसा सुख मिले।


इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि जीवन में परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, हमें अपनी मनोदशा और परिस्थितियों के अनुसार अपने शब्दों और व्यवहार को संतुलित रखना चाहिए। जुलाहा अपनी घबराहट में बार-बार बदलते संदेशों के कारण विभिन्न स्थितियों में गलतफहमियों का शिकार होता है। अंत में, उसे उसी शब्दों का सही मतलब समझ में आता है जो उसने पूरी यात्रा में बार-बार बोले थे। यह कहानी दिखाती है कि जीवन की अनिश्चितताओं और बदलावों को समझना और उनकी वास्तविकता को स्वीकार करना कितना महत्वपूर्ण है। 



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