संध्या रोज की तरह अपने सारे काम निपटा कर नहाने गई ही थी कि अचानक सास की कर्कश आवाज कानों में पड़ी। "अरे बहू... ओ बहू, कहां मर गई? सुनती नहीं हो क्या?" रसोई के सारे काम निपटाने के बाद अब नहाने का समय मिला था, लेकिन उसे इस कर्कश आवाज की आदत हो चुकी थी। दिन में सास की एक न एक शिकायत उसके कानों में गूंजती रहती थी, और आज भी कोई नई बात नहीं थी। संध्या ने जैसे-तैसे अपने ऊपर दो मग पानी डाला, जल्दी से कपड़े पहने और दौड़ते हुए सास, माया देवी, के कमरे में पहुंची।
माया देवी गुस्से में चिल्ला रही थीं, "अरे, तुझसे एक काम भी ठीक से नहीं होता! देख, ये पानी कमरे में फैल गया है। पोछा लगाया था या नहीं?"
संध्या डरते हुए बोली, "मां जी, लगाया तो था।"
माया देवी ने फिर चिल्लाकर कहा, "तो ये पानी कहां से आ गया? अगर मैं गिर जाती तो मेरी हड्डियां टूट जातीं! किस्मत ही खराब है जो तेरे जैसे कामचोर को मेरे बेटे ने पसंद किया। बड़े-बड़े घरों से रिश्ते आ रहे थे, और ये?"
संध्या समझ रही थी कि माया देवी जानबूझकर उसे तंग कर रही हैं। उसने बिना कुछ कहे फर्श पर गिरे पानी को साफ किया और वापस अपने कमरे में जाकर बैठ गई। उसके मन में यह सोचते हुए हल्की थकान से उसकी आंखें बंद हो गईं कि अगली बार किस बहाने से सास बुलाएगी।
यह कोई नई बात नहीं थी। जब से संध्या इस घर में आई थी, उसके पति सुरेश के ऑफिस जाते ही माया देवी उसे तंग करने का एक नया तरीका ढूंढ लेती थीं। हर दिन एक नई शिकायत, एक नया आरोप। संध्या समझ गई थी कि उसकी सास को तंग करने का बस एक बहाना चाहिए, और नहीं तो वो खुद बहाने गढ़ने में माहिर थीं।
पहले तो संध्या सबकुछ बर्दाश्त कर रही थी, क्योंकि वह अपने पति सुरेश से प्यार करती थी और घर की शांति बनाए रखना चाहती थी। लेकिन यह दिन-ब-दिन और कठिन होता जा रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसकी जिंदगी इस तरह क्यों हो गई। कभी वह एक बिंदास और मजबूत लड़की हुआ करती थी, जो स्कूल-कॉलेज में किसी के भी लिए लड़ने को तैयार रहती थी। लेकिन अब अपने ही घर में वह खुद के लिए नहीं लड़ पा रही थी।
शाम को जब सुरेश घर आता, तो संध्या बहुत सारी बातें करने की सोचती, लेकिन सुरेश अक्सर थका होता और मां की शिकायतों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेता था। माया देवी भी बेटे के सामने बहुत ही अच्छी दिखतीं, लेकिन जब सुरेश घर से बाहर जाता, तो उनका असली रूप सामने आ जाता।
माया देवी की सबसे बड़ी नाराजगी संध्या के साथ दहेज को लेकर थी। संध्या के माता-पिता ने अपनी हैसियत से बढ़कर उसकी शादी में खर्चा किया था, लेकिन माया देवी को कभी संतोष नहीं हुआ। उन्हें हमेशा लगता था कि उन्हें और कुछ मिलना चाहिए था। इसी के चलते उन्होंने घर की नौकरानी को भी हटा दिया था, और सारे घर का काम संध्या के जिम्मे आ गया था।
संध्या ने कई बार सोचा कि वह इस मुद्दे पर सुरेश और माया देवी के साथ बैठकर शांति से बात करेगी, लेकिन कभी समय नहीं मिला। हर दिन एक नई समस्या, एक नया बहाना।
एक दिन, जब संध्या सुबह-सुबह झाड़ू लगा रही थी, माया देवी बिस्तर के किनारे बैठी स्वेटर बुन रही थीं। जैसे ही संध्या उनके पास पहुंची, माया देवी ने अचानक बिना देखे एक जोरदार लात मारी और चिल्लाईं, "अरे! तुझमें अक्ल नाम की चीज है या नहीं? मुझे पता है कि मुझे धूल से एलर्जी है, फिर भी यहां झाड़ू लगाने चली आई!"
संध्या ने चुपचाप सब सहन किया, लेकिन जैसे ही वह झाड़ू लेकर थोड़ी और आगे बढ़ी, माया देवी ने फिर से पैर चलाया और इस बार संध्या का सिर दीवार से टकरा गया। संध्या दर्द से कराह उठी, लेकिन फिर भी उठने की कोशिश करने लगी। तभी माया देवी ने फिर से उसे लात मारी, और इस बार संध्या बेहोश हो गई।
माया देवी ने उसे कोसते हुए कहा, "अरे मर गई क्या? उठ, अभी काम पड़ा है!"
लेकिन जब संध्या नहीं उठी, तो माया देवी के हाथ-पांव फूल गए। उन्होंने तुरंत सुरेश को फोन किया। सुरेश तुरंत संध्या को अस्पताल ले गया, लेकिन माया देवी की बड़बड़ाहट बंद नहीं हुई। वह अस्पताल में भी कह रही थी, "यह सब इसका नाटक है, सिर्फ काम से बचने के लिए।"
डॉक्टरों की तमाम कोशिशों के बावजूद, संध्या की जान नहीं बच पाई। उसके सिर में गहरी चोट लग चुकी थी, जिससे उसकी मौत हो गई। सुरेश टूट चुका था, और माया देवी को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था।
धीरे-धीरे, पड़ोसियों को सच्चाई पता चलने लगी। सबने माया देवी के बुरे बर्ताव की कहानियां सुनाई, और सुरेश के आत्मग्लानि से भरे चेहरे पर भी लोगों की निगाहें थीं। वह खुद भी समझ गया था कि उसकी मां ने उसकी पत्नी के साथ जो किया, वह गलत था।
सुरेश ने ज्यादा दिन इस बोझ के साथ नहीं जी पाए। एक दिन उसने खुद को पंखे से लटका लिया, और अपनी जिंदगी खत्म कर दी।
अब माया देवी के घर में बस सन्नाटा था। वह दिनभर बड़बड़ाती रहती थीं, "अरे बहू, कहां मर गई? मेरे बेटे को भी साथ ले गई। जल्दी आ, घर गंदा पड़ा है।"
लोगों ने सुना, लेकिन कोई उनकी मदद करने नहीं आया। कुछ दिनों बाद खबर आई कि माया देवी को पागलखाने में भर्ती करा दिया गया था, और उनके घर को किसी ने सस्ते दामों में बेच दिया था।
रतनलाल और उनकी पत्नी सुमित्रा शहर से दूर एक गाँव में रहते थे। गाँव में उनको अच्छी खेती बाड़ी थी, अतः उनकी गिनती गाँव के समपन्न किसान परिवारों में होती थी। दुर्भाग्यवश उनको कोई संतान नहीं था। रतनलाल की पत्नी सुमित्रा देवी ने घर के काम काज में मदद के लिए अपने गाँव की ही एक गरीब औरत यमुना को अपने घर में नौकरानी के रूप में रख लिया था। वह रोज आती थी और सब काम निबटा कर अपने घर चली जाती थी। सुमित्रा देवी उसे काम के बदले खाना कपड़ा और अच्छा पगार देती थी। किसी दिन जब, किसी कारणवश यमुना काम पर नहीं आती थी, उस दिन वह अपनी लड़की मालती को सुमित्रा देवी के मदद के लिए भेज देती थी।
मालती भी अपने माँ की तरह अच्छे से सब काम कर देती थी और मालकिन की खुब इज्जत और सेवा करती थी। सुमित्रा देवी भी मालती को अपने बेटी की तरह मानती थी और उसे खिला पिला कर काम से जल्दी छुट्टी देकर उसके घर भेज देती थी। यमुना काफी गरीब थी और उसका पति भी गुजर गया था। उसको भी केवल एक मात्र संतान उसकी बेटी मालती ही थी, जिसे वह गरीब होने के बावजूद पढ़ा लिखा रही थी। मालती पढ़ने में तेज थी और उसका ध्यान पढ़ाई के तरफ ज्यादा रहता था, फिर भी वह अपने माँ के काम में हाथ बटांती थी। मालती जानती थी कि उसके माँ की नौकरी और आमदनी ही उन लोगों के लिए एक मात्र सहारा है।
इधर सुमित्रा देवी भी मालती के स्वभाव से खुब प्रभावित रहती थी और उसके पढ़ाई में हमेशा आर्थिक मदद करती रहती थी। वह उसे अपने नौकरानी की बेटी से ज्यादा अपने बेटी की तरह मानती थी। उनकी भी इच्छा रहती थी कि मालती पढ़ लिख कर कुछ अच्छा बने ताकि उसके माँ की गरीबी दूर हो और उसकी अच्छे से शादी ब्याह हो सके।
समय गुजरता गया और रतनलाल अपने पत्नी के साथ गाँव छोड़ कर शहर में चले गए। बुढ़ापे में उनका स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं रह रहा था और गांव में इलाज आदि का अच्छा प्रबंध नहीं था। अतः अब शहर में रहना उनके लिए मजबूरी था।
एक बार रतनलाल जी की तबियत कुछ ज्यादा ही खराब हो गई, जिससे उन्हें शहर के एक बड़े हास्पिटल में भर्ती करना पड़ा। उन्हें हास्पिटल के आई सी यू में रखा गया था और उनकी पत्नी सुमित्रा देवी बाहर हास्पिटल के गलियारे में बेंच पर दुखी मन से बैठी थीं। इस बीच उनके पूर्व नौकरानी की बेटी मालती, जो पढ़ लिख कर अब एक डाक्टर बन गई थी और उसी हास्पिटल में कार्यरत थी, उधर से गुजरी और उसकी नजर उस दुखी औरत पर पड़ गयी। काफी बृद्ध हो जाने के बावजूद भी मालती ने सुमित्रा देवी को पहचान लिया और उनके पास गयी और पैर छुकर नमस्कार किया और यहाँ आने का कारण आदि जाना। सारी बातें जानकर मालती, जो अब हास्पिटल से छुट्टी पाकर अपने घर जा रही थी, पुनः अपने सुमित्रा देवी के साथ हास्पिटल में उनके पति रतनलाल जी के पास आयी और उनके स्वास्थ्य के बारे में अपने सहयोगी डाक्टरों से पूर्ण जानकारी लेकर उनके उपचार में लग गयी।अब डाक्टर मालती और उनकी डाक्टरों की टीम के देख रेख और इलाज के चलते कुछ ही दिनों में रतनलाल जी पूर्ण स्वस्थ हो गये। हास्पिटल से छुट्टी पाकर जब वे लोग अपने शहरी घर में आए तो उनके साथ मालती भी आयी। बात चीत के क्रम में मालती ने बताया कि अब उनकी माँ भी गुजर गयी है और वह अकेले रहती है तथा हास्पिटल में रोगियों की देखभाल में अपना समय गुजारती है।
उसकी भी सारी कहानी जानने के बाद, की कैसे कैसे अपनी माँ की मिहनत और अपने मालिक मालकिन श्री रतनलाल जी और सुमित्रा देवी की आर्थिक मदद से उसने अपनी पढ़ाई पूरी की और डाक्टर बनी , वे दोनों पति पत्नी खुब खुश हुए और उसे अपनी बेटी बना लिए। अब मालती उन्हीं लोगों के साथ इस घर में रहने लगी। कुछ समय बाद मालती के इच्छा अनुसार उसकी शादी रतनलाल जी और सुमित्रा देवी ने एक माता पिता के रूप में मालती के साथ उसी हास्पिटल में कार्यरत एक उसके मित्र डाक्टर से बडे़ धुमधाम से कर दिया और कन्यादान किया। अपनी गाँव तथा शहर की संपत्ति भी उन लोगो ने मालती तथा उसके पति के नाम कर दिया। इस तरह एक बेटी पाकर और उसका कन्यादान करके वो दोनों खुब खुश हुए।
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