चेन्नई के सफर के दौरान जब ट्रेन विजयवाड़ा स्टेशन पर रुकी, तो TTE (ट्रेन टिकट एग्जामिनर) मेरे पास आकर कहने लगा, "साहब, C केबिन में एक आंटी आपको बुला रही हैं।" पहले तो मुझे थोड़ी हैरानी हुई, लेकिन मैं उनके केबिन की ओर बढ़ गया। जब मैं वहां पहुँचा, तो देखा कि एक बुजुर्ग आंटी अकेली बैठी हुई थीं, चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ पर आँखों में एक अजीब सी चमक। उन्होंने मुझे देखा और बिना किसी संकोच के कहा, "बेटा, मेरा केबिन अब खाली हो गया है, बाकी लोग उतर गए हैं। मुझे अब अकेले थोड़ा डर सा लग रहा है। क्या तुम मेरे केबिन में आ जाओगे?"
उनकी बात सुनकर मैं एक पल के लिए चुप हो गया। मन में सवाल उठना स्वाभाविक था, तो मैंने उनसे सीधे पूछ लिया, "आंटी, आपने अपने केयरटेकर का साथ में रिजर्वेशन क्यों नहीं कराया?" उन्होंने एक हल्की मुस्कान के साथ कहा, "बेटा, मेरा केयरटेकर, उसकी बीवी और उनके दो बच्चे भी मेरे साथ जा रहे हैं। सबका AC 1st का टिकट मैं नहीं करा सकती थी।" उनकी बात सुनकर मुझे उनका संघर्ष और उनकी स्थिति का अंदाजा हुआ। वे बहुत सहजता से कह रही थीं, पर उनके शब्दों में कहीं न कहीं एक सादगी भरी विवशता थी।
मैंने अपने सामान को उठाया और उनके केबिन में शिफ्ट हो गया। फिर बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। वे एक असाधारण महिला थीं, जिन्हें ज़िन्दगी ने कई चुनौतियों का सामना करवाया था। उनका नाम बताना शायद ठीक नहीं होगा, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि उनकी उम्र करीब 80 साल थी और उन्होंने ज़िन्दगी के लगभग हर रंग को देखा था। 1975 के आसपास उन्होंने एनेस्थीसिया में MD किया था, और फिर अपने पति के साथ भारतीय रेलवे की मेडिकल सेवा में शामिल हो गईं। हालांकि, नियति ने उनके साथ बड़ा ही कठोर मज़ाक किया। एक रेल दुर्घटना में उन्होंने अपने पति को खो दिया, जब वे सिर्फ 26-27 साल की थीं।
पति की मृत्यु के बाद, उन पर पूरी ज़िम्मेदारी आ गई। उन्होंने अकेले अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया, उन्हें पढ़ाया-लिखाया, और अंततः 20 साल पहले रेलवे से रिटायर हुईं। उनके दो बच्चे हैं – एक बेटा और एक बेटी, दोनों अब अमेरिका में बसे हुए हैं। यह सुनकर मुझे थोड़ा अजीब लगा कि उनके बच्चे अब वापस भारत नहीं आना चाहते। हालांकि, इस बात पर मैंने कोई टिप्पणी नहीं की, क्योंकि हर किसी की अपनी-अपनी मजबूरियां होती हैं।
आंटी के चेहरे पर उनके अकेलेपन की लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं। उनकी आँखों में एक गहरी उदासी थी, लेकिन उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "कोई बात नहीं बेटा, ये भी किस्मत की ही बात है।" हम बात करते रहे – घर, परिवार, ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव, और उन्होंने मुझे कई किस्से सुनाए। उनके जीवन के हर पहलू में एक गहरा अनुभव था, लेकिन सबसे दिलचस्प बात यह थी कि वे अब भी ज़िंदगी को जीना चाहती थीं। वे रामेश्वरम जा रही थीं, और बड़ी ही सहजता से बोलीं, "जब तक ज़िंदा हूं, घूमना चाहती हूं। एक दिन तो सबको जाना है, लेकिन उससे पहले जीना जरूरी है।"
हमारी बातचीत में वक्त कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला। सफर के दौरान हमने इतना हंसा और बातें कीं कि एक पल के लिए भी चुप नहीं हुए। एक ऐसा रिश्ता सा बन गया, जिसमें न उम्र की कोई दीवार थी, न ही कोई औपचारिकता। जब ट्रेन चेन्नई पहुंची, तो रुचि (मेरी पत्नी) हमें लेने प्लेटफार्म पर आ चुकी थी। मैंने आंटी का सारा सामान उठाया और उन्हें ट्रेन से उतारने में मदद की। रुचि से उनका परिचय कराया और फिर उनके केयरटेकर के हवाले कर दिया।
जाने से पहले मैंने आंटी के पैर छुए, और वे मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, "खुश रहो बेटा, तुम्हारे जैसे लोग मिल जाएं तो सफर आसान हो जाता है।" उनके ये शब्द मेरे दिल को छू गए। फिर हम अपने-अपने रास्ते चल दिए – मैं और रुचि घर की ओर, और आंटी अपनी यात्रा की ओर।
आंटी की ज़िंदादिली और साहस ने मुझे बहुत कुछ सिखाया। ज़िंदगी के सफर में कई लोग मिलते हैं, लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जो हमेशा के लिए दिल में जगह बना लेते हैं। ईश्वर उन्हें सदा स्वस्थ और खुश रखे।
इस दुनिया में हर कोई सच और झूठ के बीच का फर्क निकालने में लगा हुआ है, पर कुछ आँखें ऐसी होती हैं, जो बिना कुछ कहे ही सच बयान कर देती हैं। और आंटी की आंखें उन्हीं में से थीं – उनकी आँखों का सच उनकी ज़िंदगी की कहानी बयां करता था।
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