अरे! सिर्फ़ अपनी ज़रूरत की चीज़ें ही रखो। तुम अपने बेटे के पास जा रहे हो। किसी रिश्तेदार के पास नहीं। अब से सारी ज़िम्मेदारियाँ हमारा बेटा ही उठाएगा।” - सुरेन्द्र सिंह ने गर्व से कहा।
उनके बेटे पवन सिंह ने करीब पंद्रह साल पहले दिल्ली में एक छोटी सी फैक्ट्री लगाई थी। सुरेन्द्र सिंह के पास गाँव में काफ़ी ज़मीन-जायदाद थी। पिछले छह महीने से पवन माँ-बाप को शहर बुला रहा था।
उन्होंने कहा कि बुढ़ापे में वे अकेले कहाँ रहेंगे? गाँव में ही पड़े रहेंगे। इसलिए सारी संपत्ति बेचकर उनके पास दिल्ली चले आओ। बहुत जिद्दी होना पड़ा। आखिरकार सुरेन्द्र सिंह को मानना पड़ा। संपत्ति बेचकर उन्हें अच्छी खासी रकम मिली, जिसे उनके बेटे ने अपने खाते में ट्रांसफर कर दिया और फिर दोनों पति-पत्नी दिल्ली आ गए।
कुछ दिन तो सब ठीक रहा। उसके बाद सुरेन्द्र सिंह की बहू का व्यवहार बदलने लगा। ऐसा लगने लगा कि वे इन लोगों को अवांछनीय व्यक्ति समझते हैं। वह अपनी सास को दिनभर काम में व्यस्त रखती थी, मानो उन्हें मुफ्त की नौकरानी मिल गई हो। मधुमेह के मरीज होने के कारण सुरेन्द्र सिंह को जल्दी भूख लग जाती थी। लेकिन बहू नाश्ता बहुत देर से परोसती थी। इधर वे भूख के कारण बेचैन रहते थे।
बेटे पवन को भी अपने माता-पिता से कोई मतलब नहीं था और न ही वह एक पल भी उनके पास बैठता था। सुरेन्द्र सिंह की जेब में एक पैसा भी नहीं था। खाने के अलावा उनकी किसी भी ज़रूरत का ख्याल पूरी ज़िंदगी नहीं रखा गया। एक बार कटहल की सब्ज़ी काटते समय उनकी पत्नी की उंगली कट गई और उसमें से बहुत ज़्यादा खून बहने लगा। तो मुझे पास की दुकान से पट्टी लाने के लिए भागना पड़ा।
क्योंकि पास में पैसे नहीं थे। एक दिन बड़ी हिम्मत करके उन्होंने अपने बेटे से 100 रुपए मांगे- "बाबू, मैं तुम्हें 100 रुपए दे देता, किसी इमरजेंसी में काम आ जाता।" पवन ने बहुत ही रुखाई से कहा- "खाना मिल जाता है, घर में रहते हैं। पैसे क्या काम आएंगे?"
इस घटना ने उन्हें झकझोर दिया। वे और उनकी पत्नी मन ही मन पश्चाताप करने लगे थे। एक साल भी नहीं बीता था, पता नहीं आगे जिंदगी कैसी गुजरेगी। गांव भी वापस नहीं जा सकते थे। बेटे के बहकावे में आकर वे सब कुछ बेचकर उसके पास आ गए। सुरेंद्र सिंह बेहद तनाव में रहने लगे। पत्नी की तबीयत भी दिन-ब-दिन खराब होने लगी।
एक सुबह जब पवन की माँ जागी तो देखा कि उसके पति हमेशा की तरह बिस्तर पर नहीं सो रहे हैं। सोचा जल्दी उठकर घर पर ही कहीं होंगे। इधर-उधर तलाश किया। फिर बहू को बताया। "आएँगे, कहीं आस-पास गए होंगे। सुबह भी चैन से नहीं रहने देते।"- लापरवाही से कहा।
पूरा दिन बीत गया। लेकिन सुरेन्द्र सिंह का कहीं अता-पता नहीं चला। उनकी पत्नी का रो-रोकर बुरा हाल था। मोहल्ले में खबर थी कि पवन सिंह के पिता घर छोड़कर कहीं चले गए हैं। पंद्रह-बीस दिन बाद पवन सिंह के एक परिचित ने उन्हें शहर में एक चाय की दुकान के पास दयनीय हालत में देखा। दाढ़ी बढ़ने के साथ ही शरीर क्षीण हो गया था।
उस व्यक्ति ने उसे नजदीकी अस्पताल में भर्ती कराया। नाम-पता पूछा। लेकिन उसने कुछ नहीं बताया। आखिरकार उस व्यक्ति ने उसका फोटो खींचकर थाने में सूचना दी। उसने सोशल मीडिया पर भी उसकी फोटो पोस्ट की।
पवन सिंह को भी सूचना दी। लेकिन उसने कोई ध्यान नहीं दिया। अगले दिन पुलिस ने पवन सिंह को भी थाने से बुला लिया। पुलिस पवन सिंह को अस्पताल ले गई लेकिन वहां उसने अपने पिता को पहचानने से इनकार कर दिया। सुरेन्द्र सिंह बस खाली आंखों से देखता रहा। पुलिस पूछती रही - "बाबा, बताओ! यह तुम्हारा बेटा है?" क्या वह सचमुच अपने इकलौते बेटे को नहीं पहचान पाया या फिर वह अपने रिश्तों से निराश हो गया था?
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