पिताजी के अचानक घर आने पर पत्नी का चेहरा नाराजगी से भर गया।
"लगता है, बूढ़े को फिर से पैसों की जरूरत आ गई है। नहीं तो यहाँ कौन आने वाला था? खुद का पेट ठीक से भर नहीं पाते, और घरवालों का कैसे भरोगे?"
मैंने उसकी बातों को अनसुना करते हुए नजरें चुरा लीं और दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल के पास खड़े होकर सफर की थकान मिटाने के लिए हाथ-मुँह धो रहे थे। इस बार हालात कुछ ज्यादा ही खराब थे। बड़े बेटे के जूते फट चुके थे, और वह हर रोज़ स्कूल जाते वक्त शिकायत करता था। पत्नी की दवाइयाँ भी पूरी नहीं खरीदी जा सकी थीं, और अब पिताजी भी आ गए थे, जिससे घर में एक अजीब सी चुप्पी छा गई थी।
खाना खत्म होने के बाद पिताजी ने मुझे अपने पास बुलाया। मन में सवाल उठने लगे कि कहीं वह किसी आर्थिक समस्या को लेकर तो नहीं आए। पिताजी ने कुर्सी पर आराम से बैठते हुए कहा, “सुनो बेटा, खेतों में काम बहुत बढ़ गया है, और मुझे रात की गाड़ी से वापस जाना है। तीन महीने हो गए, तुम्हारी कोई चिट्ठी नहीं आई। जब तुम परेशान होते हो, तब हमेशा ऐसा ही होता है।”
इसके बाद उन्होंने अपनी जेब से सौ-सौ के पचास नोट निकाले और मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले, "रख लो, काम आएंगे। धान की फसल इस बार अच्छी हुई है। घर में सब सही है। तुम बहुत कमजोर लग रहे हो, अपना ध्यान रखो और बहू का भी ख्याल रखना।”
मेरी आवाज जैसे गले में अटक गई। कुछ कहने से पहले ही पिताजी ने हंसते हुए कहा, "क्या हुआ, बड़े हो गए हो क्या?"
“नहीं तो,” मैंने धीरे से कहा और हाथ आगे बढ़ा दिया। पिताजी ने वह पैसे मेरी हथेली पर रख दिए।
कई साल पहले, पिताजी मुझे स्कूल भेजने से पहले इसी तरह मेरी हथेली पर चुपचाप पैसे रख दिया करते थे। पर उस वक्त मेरी नजरें झुकी नहीं होती थीं, जैसे आज हैं।
दोस्तों, एक बात हमेशा याद रखिए... माँ-बाप कभी अपने बच्चों पर बोझ नहीं बनते, पर बच्चे उन्हें बोझ मानने लगते हैं।
बादाम छीलते हुए सुनीता ने दो बादाम चुपके से अपने मुँह में डाल लिए। जब वह अपने पति विजय को दूध के साथ बादाम देने गई, तो उसकी सासू माँ तुरंत भड़क उठीं। "अरे! मैंने पूरे बादाम भिगोए थे, फिर विजय को कम क्यों दे रही हो?" सासू माँ की इस नाराजगी पर सुनीता की हालत जैसे काटो तो खून न निकले वाली हो गई। कांपती आवाज़ में सुनीता बोली, "वो... वो सासू माँ, छीलते वक्त दो बादाम नीचे गिर गए थे, अब कैसे देती उन्हें?"
सासू माँ की शक भरी निगाहें सुनीता के अंदर तक चुभ रही थीं। उन्होंने तंज कसते हुए कहा, "तुम्हारे मायके से बादाम की बोरी तो आती नहीं जो यूँ ही गिरा-गिरा के चलोगी।"
सुनीता मन में छिपे राज़ को छुपाते हुए, बर्तन उठाने के बहाने वहां से खिसक गई। रसोई में जूठे बर्तन रखते हुए, मायके की यादों से उसकी आंखें भर आईं। वहाँ कभी ऐसा भेदभाव नहीं था। यहाँ सासू माँ को लगता था कि घर की सारी ताकत की चीजें पुरुषों के लिए हैं, क्योंकि उन्हें बाहर जाकर कमाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। औरतें तो बस घर के कामकाज में लगी रहती हैं, इसमें क्या खास मेहनत होती है?
चूंकि ससुर जी नहीं थे, सासू माँ खुद को घर के पुरुषों की कैटेगरी में ही गिनती थीं। सुनीता ही अकेली थी जिसे घर में औरत का दर्जा मिला था। वह सोचने लगी, अगर विजय उसका साथ न देते, तो उसकी जिंदगी कितनी कठिन हो जाती। दिनभर काम में कब समय निकल जाता, पता ही नहीं चलता।
रात को खाना बनाकर और बर्तन साफ करने के बाद सुनीता कमरे में आई, तो विजय उसका इंतजार कर रहे थे। जैसे ही वह अंदर आई, विजय ने उसे प्यार से गले लगा लिया और मुस्कुराते हुए बोले, "तुम्हारे लिए कुछ लाया हूँ।" यह कहते हुए उन्होंने बादाम का एक पैकेट सुनीता के हाथ में थमा दिया। "तुम्हें भीगे बादाम बहुत पसंद हैं, इसलिए अलग से भिगो कर खा लिया करो।"
विजय की इस छोटी सी लेकिन प्यारी बात ने सुनीता के दिल को अंदर तक छू लिया, जैसे भीगे बादाम उसकी आत्मा को ताजगी और प्यार से भिगो रहे हों।
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