अक्षरा ने बस में अकेले सफर करने का फैसला किया, लेकिन मन में तरह-तरह के सवाल उठ रहे थे। वह अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित थी, और अनजाने लोगों के साथ सफर करने का ख्याल उसे बेचैन कर रहा था। जब बस ने हॉर्न बजाया, तो सभी यात्री जल्दबाजी में अपनी-अपनी सीटों पर बैठने लगे।
अक्षरा ने खिड़की से बाहर झांका और अपने चाचाजी और चाची को बाय कहा। चाचाजी ने जोर से कहा, "मैंने कंडक्टर से कह दिया है कि बगल वाली सीट पर किसी महिला को ही बैठाए और जैसे ही पहुंचो, फोन कर देना।"
बस धीरे-धीरे चलने लगी, और अक्षरा ने खिड़की का शीशा खोलने की कोशिश की ताकि ठंडी हवा के झोंकों से उसे उलटी का एहसास न हो, लेकिन शीशा टस से मस नहीं हुआ। उसने कंडक्टर से मदद मांगी, जिसने शीशा खोल दिया। लेकिन उसकी बगल वाली सीट अब भी खाली थी, और कंडक्टर एक दंपति से आग्रह कर रहा था कि वे अपनी सीट बदल लें ताकि अक्षरा के बगल में एक महिला यात्री बैठ सके।
अक्षरा ने देखा कि कंडक्टर एक युवा जोड़े से बात कर रहा था। आदमी मान गया, लेकिन उसकी पत्नी को यह ख्याल पसंद नहीं आया। अक्षरा ने झल्लाते हुए कहा, "मुझे उलटी होती है, उन से कहिए कि मुझे खिड़की की ओर वाली सीट दे दें।"
कंडक्टर ने रूखे स्वर में जवाब दिया, "अब अगर आपकी बगल में कोई पुरुष आकर बैठे, तो मुझे मत कहना। मैं आपकी सुरक्षा का ध्यान रख रहा हूं।" अक्षरा ने अनमने भाव से सिर हिलाया, लेकिन अंदर ही अंदर असहज महसूस कर रही थी।
तभी अचानक बस रुकी, और एक लंबा, मजबूत दिखने वाला युवक धड़धड़ाते हुए बस में चढ़ा। उसने ड्राइवर का कॉलर पकड़ते हुए चिल्लाया, "तू मुझे छोड़कर जा रहा था? मेरे बिना बस कैसे चला दी तूने?"
ड्राइवर डर गया, और कंडक्टर ने स्थिति संभालने की कोशिश की। उसने युवक को अक्षरा की बगल वाली सीट पर बैठा दिया। अक्षरा समझ गई कि कंडक्टर ने उसकी बात न मानने का बदला लिया है। वह खिड़की की ओर मुंह फेरकर बैठ गई।
बारिश शुरू हो चुकी थी, और बस पहाड़ी रास्तों पर तेजी से आगे बढ़ रही थी। बस की खिड़कियों से बारिश का पानी अंदर आने लगा। सभी यात्री अपनी-अपनी खिड़कियां बंद कर चुके थे, लेकिन अक्षरा की खिड़की बंद नहीं हो रही थी। उसने इधर-उधर देखा, लेकिन कोई मदद नहीं मिली। तभी बगल में बैठे युवक ने कहा, "खिड़की बंद करनी है? मैं कर देता हूं।"
अक्षरा ने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन युवक ने खिड़की बंद कर दी। थोड़ी देर बाद उमस और बस के धुएं की गंध से अक्षरा का जी मिचलाने लगा। उसने खिड़की खोलने की कोशिश की, लेकिन शीशा फिर से नहीं हिला। युवक ने यह देखकर खिड़की खोल दी, और अक्षरा को उलटी होने लगी। उसने थोड़ी देर बाद खुद को संभाला, लेकिन तब तक उसके बाल और कपड़े भीग चुके थे।
युवक ने आत्मीयता से पूछा, "आपकी तबीयत ठीक है? पानी दूं?"
अक्षरा ने अनमने भाव से कहा, "मेरे पास पानी है।"
युवक ने फिर पूछा, "आप अकेली जा रही हैं? कोई साथ नहीं है?"
इस सवाल पर अक्षरा असहज हो गई, और तिरछे स्वर में बोली, "क्यों, आपको क्या करना है?"
युवक ने महसूस किया कि उसने गलत सवाल पूछा है, और चुप हो गया। थोड़ी देर बाद, बस में एक पुरानी हिंदी फिल्म का गाना बजने लगा, और माहौल थोड़ा सहज हो गया। बारिश तेज हो चुकी थी, और अक्षरा ने देखा कि युवक सो चुका था। उसने बस खिड़की के पास सिर टिकाकर सोने की कोशिश की।
सुबह के तीन बज चुके थे, और बस अपने गंतव्य के पास पहुंचने वाली थी। अक्षरा ने युवक की ओर देखा, उसका पैर अनजाने में उसकी सीट के सामने आ गया था। लेकिन उसने देखा कि युवक गहरी नींद में है, और उसका सिर दूसरी तरफ झुका हुआ है। पहली बार अक्षरा के चेहरे पर मुस्कान आ गई।
सुबह के छह बजे बस अपने गंतव्य पर पहुंची। युवक तेजी से उठा और कंडक्टर से बोला, "उस लड़की का सामान उतार दो और उसे सही ऑटो में बिठा देना। आगे से किसी भी लड़की के साथ मुझ जैसे को मत बैठाना, समझे?" फिर वह तेजी से वहां से चला गया।
अक्षरा के मन में कई सवाल उठे। उसे उस युवक की सहायता के लिए धन्यवाद न कह पाने का मलाल था, लेकिन उसने यह भी महसूस किया कि इस दुनिया में आज भी इंसानियत और भलाई जिंदा है।
यह यात्रा अक्षरा के लिए एक अनोखा अनुभव थी, जिसने उसे सिखाया कि कभी-कभी अनजाने लोग भी हमें वह सुरक्षा और सहायता दे सकते हैं, जिसकी हमें उम्मीद नहीं होती।
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