नहाने के बाद गीले बालों को तौलिए से पोंछकर अन्विता ने ड्रेसिंग टेबल पर रखी सिंदूर की डिबिया उठायी। फिर न जाने क्या सोचकर वापस रख दी। आज सुबह से ही उसके मन में हलचल-सी मची हुई थी। उसने आदमकद आईने में अपना अक्स देखा, तो आंखों में कुछ सवाल नज़र आए। क्या वो राहुल के वापस आने पर खुश है? चिरप्रतीक्षित और अभिलाषित चीज पाने की खुशी इन आंखों में क्यों नहीं झलकती? क्यों छाया है एक वीरान सन्नाटा? जिसकी प्रतीक्षा में जीवन के पंद्रह बहुमूल्य साल यूं ही गंवा दिए, उसके आने की आहट मन को एक मधुर सिहरन से क्यों नहीं भर देती? क्यों आज वेदना और कुढ़न का आवरण मन पर छाया हुआ है?
अन्विता ने दीवार पर टंगी घड़ी की ओर देखा। घड़ी की टिक-टिक के साथ समय सरकता जा रहा था… कुछ ही देर में राहुल यहां पहुंच रहे होंगे। घर में सब कितने उत्साहित हैं। मानो गड़ा खजाना मिल गया हो… और मैं? मेरी मनोदशा से किसी को क्या लेना-देना..? अन्विता ने सोचा।
अन्विता के मन में चल रहे बवंडर से अनजान परिवार के लोग राहुल के स्वागत की तैयारियों में व्यस्त हैं। ऊपर अपने कमरे में अकेली बैठी अन्विता ने गौर से आईने में अपना चेहरा निहारा। बालों में सफेदी कहीं-कहीं से झांकने लगी है। चेहरे में अब वो लावण्य कहां रहा, जो कभी उसे गर्व से भर दिया करता था। गोरा भरा-भरा चेहरा अब सांवला और लंबोतरा-सा लगने लगा है। पिछले वर्ष ही तो पैंतीस वर्ष पूरे किए हैं उसने। क्या उम्र के इस पड़ाव में कोई उस साथी के साथ को सार्थक मान सकता है, जिसने जीवन की शुरुआत में ही दामन छुड़ा लिया हो? जीवन की उमंगें अब मृतप्राय हो चुकी हैं। वैसे भी जीवन की कठोर पाषाणी राह में नितांत एकाकी चलना… टूट कर गिरना… फिर उठना… अपनी हिम्मत से मंजिल तक पहुंचना, क्या सब के नसीब में होता है..? पर अन्विता ने कभी कठिनाइयों में आंसू नहीं बहाए। जीवन की हर विसंगति से लड़ी है वो, तभी तो आज एक मुकाम पर है और आज, जीवन के इस मोड़ पर राहुल का आगमन? अन्विता का मन क्षुब्ध हो गया। क्या करे..?
क्या न करे? दुनिया… समाज… परिवार… अपनी अस्मिता… अपनी भावनाएं किस-किस से लड़े अन्विता और कैसे? कहते हैं, राहुल का आगमन जीवन के हर अंधेरे को मिटा देता है, सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश होता है, पर क्या अन्विता के जीवन में राहुल का प्रथम आगमन एक नव जीवन की शुरुआत थी?
अन्विता ने फिर से घड़ी की ओर देखा, 'चार बजकर तीस मिनट… यानी आधे घंटे में राहुल यहां होगा। हे ईश्वर! मुझे शक्ति दे… खुद से लड़ने की शक्ति… ज़माने से लड़ने की शक्ति… सही निर्णय लेने की शक्ति… अपनी अस्मिता की रक्षा करने की शक्ति…” उसने कांपते हाथों से एक बार फिर सिंदूर की डिबिया उठायी और फिर वापस रख दी। दोनों हथेलियों में चेहरा छिपाकर वो फूट-फूट कर रो पड़ी। न चाहते हुए भी मन विगत की ओर भागा चला जा रहा था।
कितनी गहमागहमी और खुशी का माहौल था अन्विता के विवाह के दिन। पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी अन्विता सबकी लाड़ली थी। इंटर पास करते ही पिता ने राहुल के साथ उसका विवाह तय कर दिया था।
“लड़का इंजीनियर है… लाखों में एक… मेरी अन्विता के तो भाग खुल गए…” पिता कहते नहीं थकते थे। पर विवाह की रात ही अन्विता की पुष्पित आशाओं पर तुषारापात हो गया, जब राहुल ने सपाट स्वर में उससे कहा, “ये शादी मेरी मर्ज़ी के खिलाफ हुई है। वैसे मैं जानता हूं… इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, फिर भी न चाहते हुए भी मुझे अपने माता-पिता की इच्छा के आगे झुकना पड़ा। अगर मां ने आत्महत्या की धमकी नहीं दी होती तो….”
अवाक अन्विता के पैरों तले जैसे ज़मीन खिसक गयी। प्रेम, मनुहार और समर्पण के स्वप्न में खोई मादक आंखों से आंसू बहने लगे। पल भर में सब कुछ बदल गया। उसने भीगी पलकें उठाकर देखा, राहुल सोफे पर अधलेटा लगातार सिगरेट फूंके जा रहा था। मन की बेचैनी चेहरे पर स्पष्ट थी। अन्विता ने धीरे से अपने आंसू पोंछ लिए। ‘कोई बात नहीं, भले ही इनकी मर्ज़ी से शादी नहीं हुई हो, मैं अपने प्रेम से इन्हें वश में कर लूंगी…’ सोचते-सोचते कब उसकी आंख लग गयी, पता ही नहीं चला।
सुबह आंखें खुलीं तो देखा राहुल कमरे में नहीं थे। संकोचवश वो किसी से कुछ पूछ भी नहीं पायी। पर उसे लगा जैसे घर में एक अजीब-सा सन्नाटा छाया हुआ है। लगता ही नहीं जैसे कल ही नववधू इस घर में आयी हो। घर के हर सदस्य के चेहरे पर एक अजीब-सी चुप्पी थी। पर शाम को अन्विता को हर एक प्रश्न का जवाब मिल गया, जब उसने अपनी बड़ी ननद को अपनी मां से ये कहते हुए सुना कि राहुल इस शादी के कारण घर छोड़कर चला गया।
उसकी सास बैठी रो रही थी और बड़ी ननद बिलखते हुए कह रही थी, “मां, मैंने कहा था न… राहुल की मर्ज़ी के खिलाफ कुछ मत करो… वही हुआ जिसका डर था। राहुल तो बचपन से ही ज़िद्दी है, पर किसी ने मेरी बात नहीं मानी। लाख रोकने पर भी वो चला गया…देखना अब वो शायद ही कभी लौटकर घर आए। न जाने बेचारी अन्विता का क्या होगा….?”
अन्विता कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर ढह-सी गयी। आंखों के सामने घना अंधेरा छा गया था।
फिर सब कुछ अनचाहा घटता गया। पगफेरे की रस्म के लिए भाई के साथ मायके आयी अन्विता फिर लौटकर ससुराल नहीं गयी। ससुरालवालों ने अन्विता की विदाई पर जोर डाला था, पर आंतरिक पीड़ा से विकल, रोती-बिलखती बेटी की दशा ने पिता के हृदय को वेदना की ज़ंजीर से बांध लिया था। “नहीं, मेरी अन्विता अब तभी वहां जाएगी, जब राहुल आदर-सम्मान के साथ इसे वहां ले जाएगा… अन्यथा नहीं।” उन्होंने कहा तो अन्विता के जेठ बिफर कर बोल पड़े थे, “राहुल का गुस्सा आज नहीं तो कल ठंडा हो ही जाएगा… वो खुद ही वापस लौट आएगा। क्या तब तक बेटी को घर पर बिठाएंगे? समाज क्या कहेगा? आपके साथ-साथ हमारी भी बदनामी होगी।”
“मैं इन ओछी बदनामियों की परवाह नहीं करता। अन्विता राहुल के साथ ही वहां जाएगी। ये मेरा आखिरी फैसला है…” कहते-कहते अन्विता के पिता क्रोध और वेदना की मिली-जुली अभिव्यक्ति के कारण हांफ से उठे थे।
इस घटना के बाद अन्विता के जीवन में जैसे सुख का प्रवेश निषेध हो गया। ज़िंदगी कभी-कभी ऐसा दर्द दे जाती है, जिसे सह पाना बेहद कठिन होता है। और ये दर्द हथेली पर उगे उस फोड़े से कम पीड़ादायक नहीं होता, जो अपनी टीस से सर्वांग को सिहरा देता है। अन्विता जानती थी कि ज़िंदगी बहुत बड़ी नियामत है, इसे यूं ही गंवा देना अच्छी बात नहीं है, पर पीड़ा की अधिकता के कारण आंसू बेइख्तियार आंखों से बहने लगते थे।
उसे धैर्य बंधाती मां भी फूट-फूट कर रो पड़ती थी। बेटी को बार-बार पति के पुनरागमन का विश्वास दिलाती मां भीतर ही भीतर किसी अनहोनी की आशंका से भी कांप उठती थी। अगर राहुल नहीं लौटा तो… कैसे काटेगी अन्विता पहाड़ जैसा जीवन? ये प्रश्न मां के हृदय को वेदना से मथ डालता था।
दरवाज़े पर होनेवाली हर आहट पर, हर दस्तक में अन्व
िता की धड़कनें गड़बड़ा जातीं। कभी रिश्तेदार, कभी सास-ससुर… कभी ननदें, कभी भाई-बहन… सबकी चेष्टाएं उसके अंदर के भय को और भी प्रबल कर देतीं।
धीरे-धीरे महीनों का वक्त बीतता गया। अन्विता की निगाहें अब भी राह तकती थीं, पर ससुराल की ओर से राहुल का कोई संदेश नहीं आया। अन्विता के जीने की उम्मीदों की किरण दिन-रात चुरायी जा रही थी। मन की बेचैनी कभी असहनीय हो जाती और कभी पीड़ा की लंबी रात की तरह उसे चुपके से शैतानी लोरियां गाकर सोने का प्रलोभन देती।
अन्विता की उम्र धीरे-धीरे ढलने लगी, और राहुल की अनुपस्थिति ने उसके जीवन को काले बादलों के कंबल से ढक दिया। उसकी ढलती उम्र की परवाह किए बिना रिश्तेदारों ने उसका धैर्य तोड़ने की हद तक उसे दबाव डाला। उसके प्रेयसी स्वरूप को लेकर घर के बड़े-बूढ़े भी मजाक करने लगे थे। उसके सुखमय जीवन की प्रतीक्षा अब उसे गहरी निराशा में धकेल चुकी थी।
एक दिन अन्विता को एक पत्र मिला। पत्र राहुल की मां ने भेजा था। पत्र में राहुल की मां ने लिखा था कि राहुल की मौत हो चुकी है। और ये पत्र अंतिम विदाई की तरह था।
अन्विता की रुलाई थमने का नाम नहीं ले रही थी। उसके हृदय में न जाने कितने सवाल उफान मार रहे थे। कितने दोषी रहे वो और कितनी वेदना झेली उसने। पिछले पंद्रह वर्षों में आंसू, कसक और दर्द ने उसकी आत्मा को सूखा डाला था। लेकिन समय न थमने वाला था, और उसे ज़िंदगी जीनी थी। अतः उसने खुद को संजोकर फिर से एक नए जीवन की शुरुआत की। हालांकि यह जीवन पहले जैसा सुखमय न था, पर उसने आत्मसंतोष की अमृतवती को ढूंढ निकाला था।
राहुल की वापसी की खबर सुनकर घर के सभी लोग कितने उत्तेजित हैं, पर उसे खुद का अब कोई भी महत्व नहीं रह गया। समय के साथ-साथ उसकी छवि भी बदल चुकी थी। अब अन्विता जानती है कि कई बार जिंदगी में बहुत कुछ खोने के बाद ही हमें वास्तविकता का एहसास होता है।
चौक की घड़ी की ओर देखती अन्विता अब भी उस वक्त को नकार नहीं सकती, जब राहुल की वापसी का दिन आया था। घर के प्रत्येक सदस्य की आंखें खुशी से चमक रही थीं। अन्विता ने सोचा, “क्या यही खुशी है जिसे जीवन भर मैंने अपनी प्रतीक्षा में बिताया…? क्या यही वो दिन है जिसे पाने के लिए मैंने अपने अनमोल साल गंवा दिए…?”
गहरी सांस लेकर अन्विता ने खुद को संभाला। उठकर वह घर के दरवाजे की ओर बढ़ी, और अपनी भावनाओं को छुपाते हुए सबके साथ राहुल का स्वागत किया। सब कुछ मानो स्वप्न में हो रहा था, पर इस स्वप्न के सच होने के बाद भी उसका दिल खाली-सा महसूस हो रहा था।
आजकल गरीब गुरबा फ्रिज का पानी पीता है और अमीर आदमी घड़े का पानी पीता है।
*अमीर आदमी गुड खाता है और गरीब आदमी चीनी खाता है।
*कोका कोला पेप्सी पीना आजकल अनपढ़ता की निशानी समझा जाता है और लस्सी पीने वाले को मॉडर्न समझा जाने लगा है।
*जिसके पास मोबाइल नहीं उसको हाई स्टेटस का समझा जाता है।
*इंग्लिश अब गरीबों की भाषा हो गई है संस्कृत को और पढ़े लिखो की भाषा समझी जाती है। जिसको संस्कृत आती है उसकी समाज में बड़ी इज्जत हो गई है।
*जो वेदों का एकाध श्लोक भी जानता है उसको लोग बड़ा ज्ञानी समझते हैं।
* एलोपैथी की दवाई आजकल गरीब गुरबा लेता है आयुर्वेदिक औषधि लेना आजकल पढ़ा-लिखा होने की निशानी समझी जाती है।
*शुद्ध हिंदी जिसमें कोई आंगल उर्दू का शब्द ना हो उसको सुनकर लोग वाह-वाह करते हैं।
**ऑफिस से लौटने के बाद, अनिता थक कर सोफे पर बैठ गई। थोड़ी देर बाद, आदित्य भी घर आया। अनिता को इस स्थिति में देखकर उसने कहा, "कितनी बार कहा है कि एक नौकरानी रख लो, लेकिन तुम मानती नहीं।"**
**अनिता ने समझाया, "हम मध्यम वर्ग के लोग हैं, नौकरी के खर्चे, नौकरानी के नखरे, मासिक छुट्टियाँ, त्योहारों पर गिफ्ट, साल में नए कपड़े और मासिक वेतन - ये सब हमारे लिए संभव नहीं है।"**
**आदित्य ने कुछ नहीं कहा, लेकिन अनिता ने फिर से कहा, "एक बच्चे की जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं, फिर नौकरानी का खर्चा?"**
**"अरे भाई, रख लो। देखेंगे," आदित्य ने जवाब दिया।**
**"नहीं चलेगा," अनिता ने कहा। "काम चाहे कितना भी बढ़ जाए, बजट और भी बिगड़ जाएगा। खर्चों का बोझ और भी बढ़ जाएगा।"**
**आदित्य ने सोचते हुए मोबाइल निकाला और उसमें व्यस्त हो गया। अनिता चुपचाप खाना बनाने लगी। सारे काम खत्म करने के बाद उसने बच्चे का होमवर्क करवाना शुरू किया। आदित्य बीच-बीच में कहता रहा, "मैं बार-बार कह रहा हूँ कि एक नौकरानी रख लो, इससे बहुत मदद मिलेगी।"**
**अंत में अनिता ने गुस्से में कहा, "ये सब बेमतलब की बातें हैं। विदेशों में लोग सब काम खुद करते हैं, तभी इतनी तरक्की है। मैंने कहा या नहीं कहा, फर्क नहीं पड़ता।"**
**यह सुनकर आदित्य चुपचाप उठकर कमरे में चला गया।**
**अगले सुबह, जब अनिता उठी तो देखा कि आदित्य पहले ही उठ चुका था। आदित्य ने खुद चाय बनाई, नाश्ता तैयार किया, और बच्चे को स्कूल के लिए बस स्टॉप पर छोड़ दिया। यह देख अनिता ने पूछा, "क्या हुआ? नींद नहीं आई?"**
**आदित्य मुस्कुराते हुए बोला, "नहीं, आज मैंने एक घंटे के लिए मोबाइल को छूने की कसम खाई है, इससे सारे काम हो गए। और जब तुमने नौकरानी न रखने का निर्णय लिया है, तो सही है। वैसे भी मोबाइल बहुत समय खाता है। पैसे भी बचेंगे और समय भी बचेगा। तुम अपने स्थान पर बिल्कुल सही हो। आत्मनिर्भर रहना ही ठीक है, तभी तुम्हारी सेहत और व्यवहार अच्छा रहेगा। वित्तीय बोझ भी सिर पर नहीं आएगा।"**
**अनिता के चेहरे पर एक चमक आ गई। आत्म-विश्वास के साथ उसने कहा, "तो शाम को मिलते हैं," और दोनों हंस पड़े।**
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