एक समय की बात है

एक समय की बात है, एक महिला जिसका नाम नीरा था, पेशे से वेश्या थी। उसकी जिंदगी में एक दिन ऐसा आया जब उसे यह सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि आखिर उसका कल्याण कैसे हो सकता है? इस विचार ने उसे बेचैन कर दिया। वह जानना चाहती थी कि वह किस रास्ते पर चले जिससे उसका आत्मिक कल्याण हो सके।

पहले वह एक साधु के पास गई। साधु ने उसे समझाया, "साधुओं का संग करो, उनके सेवा में ही कल्याण है। साधु लोग त्यागी होते हैं, इसलिए उनकी सेवा करने से तुम्हारा उद्धार होगा।"


नीरा ने साधु की बात सुनी, लेकिन उसे संतुष्टि नहीं मिली। फिर वह एक ब्राह्मण के पास गई। ब्राह्मण ने उसे कहा, "साधु लोग बनावटी हो सकते हैं, पर हम ब्राह्मण जन्म से ही श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मण सबके गुरु होते हैं, इसलिए ब्राह्मणों की सेवा करने से ही तुम्हारा कल्याण होगा।"


ब्राह्मण की बात भी नीरा को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सकी। इसके बाद वह एक सन्यासी के पास गई। सन्यासी ने कहा, "हम सन्यासी सबसे ऊंचे होते हैं। हमारे संग में रहो और सेवा करो, तभी तुम्हारा उद्धार होगा।"


नीरा को यहाँ भी समाधान नहीं मिला। फिर वह वैरागियों के पास गई। वैरागियों ने कहा, "हम सबसे अधिक शक्तिशाली और तेजस्वी हैं। हमारी सेवा करने से ही तुम्हारा कल्याण हो सकता है।"


नीरा को हर जगह अलग-अलग बातें सुनने को मिलीं, लेकिन कोई भी उत्तर उसे संतोषजनक नहीं लगा। वह अलग-अलग संप्रदायों और मतों के गुरुओं के पास भी गई, लेकिन हर जगह उसे वही पक्षपात और आग्रह दिखाई दिया। सभी ने उसे अपने-अपने धर्म या संप्रदाय की सेवा करने का सुझाव दिया। हर एक ने उसे अपने अनुयायी बनने के लिए कहा, लेकिन किसी ने उसे सच्चे कल्याण का मार्ग नहीं दिखाया।


थक-हारकर नीरा के मन में एक अनोखा विचार आया। उसने सोचा, "जब साधु लोग, ब्राह्मण, सन्यासी और वैरागी सभी अपने-अपने मत का आग्रह करते हैं, तो मैं क्यों न अपने जैसे वेश्याओं की सेवा करूं? शायद इसी से मेरा कल्याण हो।" उसने निर्णय लिया कि वह अपने जैसी अन्य वेश्याओं के लिए एक भोज का आयोजन करेगी।


उसने सभी वेश्याओं को भोज के लिए आमंत्रित किया। जब उस गांव के बाहर रहने वाले एक विरक्त संत, स्वामी अद्वैतानंद को इस भोज की खबर लगी, तो वे नीरा को कुछ सिखाने के लिए वहां पहुंचे।


भोज की तैयारियां चल रही थीं, और नीरा अपनी छत पर खड़ी थी। उसने देखा कि स्वामी अद्वैतानंद चावल के पानी (मांड) से अपने हाथ धो रहे थे, जो नाली में गिराया जा रहा था। नीरा को यह देखकर अजीब लगा और उसने स्वामी से कहा, "बाबा, आप क्या कर रहे हैं? यह तो गंदा पानी है, इससे आपके हाथ और गंदे हो जाएंगे।"


स्वामी अद्वैतानंद ने नीरा की ओर देखा और बोले, "बेटी, तुम भी तो मुझसे यही पूछ सकती हो कि यह गंदा पानी हाथ साफ कैसे कर सकता है? अगर गंदे पानी से हाथ साफ नहीं होते, तो क्या गंदे कर्मों से आत्मा शुद्ध हो सकती है?"


नीरा के मन में जैसे कुछ जगमगा उठा। उसने पूछा, "तो फिर बाबा, मेरे कल्याण का मार्ग क्या है?"


स्वामी अद्वैतानंद ने मुस्कुराते हुए कहा, "बेटी, सच्चा संत वही होता है जिसके मन में किसी भी तरह का स्वार्थ, पक्षपात या अहंकार न हो। जो सच्चे मन से सिर्फ जीवों के कल्याण की इच्छा रखता हो। ऐसे संत का संग करना, उनकी बातें सुनना, और उनकी सेवा करना ही सच्चा कल्याण है। संप्रदाय, वर्ण, और जाति के भेदभाव में पड़कर तुम सच्चाई से दूर होती जा रही हो।"


नीरा को अब समझ में आ गया कि सच्चा संत कौन होता है और उसने अपने जीवन में उस ज्ञान को अपनाने का निर्णय लिया। उसने सोचा कि अब वह किसी भी बाहरी दिखावे या धर्म के नाम पर छलावे में नहीं पड़ेगी। वह अब सच्चे संत की तलाश में आगे बढ़ी।


तात्पर्य यह है कि जहाँ स्वार्थ, अभिमान, और अहंकार होता है, वहाँ सच्चे कल्याण की उम्मीद नहीं की जा सकती। सच्चा कल्याण तभी संभव है जब हम बिना किसी भेदभाव के सच्चे मार्ग पर चलें और सच्चे संत का संग करें, जिनके पास कोई स्वार्थ या अहंकार नहीं होता।


शादी को कुछ ही समय हुआ था और आज कामवाली भी नहीं आई थी, इसलिए नीतू खुद ही बर्तन धोने में लग गई। जैसे ही वह बर्तन धो रही थी, अचानक उसके हाथ से कांच का कप फिसलकर जमीन पर गिर गया और टूट गया। कप टूटते ही नीतू के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं। उसे डर लगने लगा कि उसकी सास अब उसे जली-कटी सुनाएंगी। कप गिरने की आवाज सुनकर उसकी सास सुमित्रा देवी तेजी से रसोई की ओर दौड़ी आईं।


सुमित्रा देवी ने रसोई में आते ही पूछा, "क्या हुआ बेटी?"


नीतू ने घबराई हुई आवाज में जवाब दिया, "माँ, पता नहीं कैसे, ध्यान रखते हुए भी मेरे हाथ से कप गिरकर टूट गया।"


सुमित्रा देवी मुस्कुराईं और नीतू के पास आकर प्यार से बोलीं, "बेटी, चिंता मत करो। कप ही तो टूटा है, तुम्हें चोट तो नहीं आई ना? कप के टुकड़े तो फिर से जुड़ सकते हैं, लेकिन मेरी बहू के दिल के टुकड़े कभी नहीं जुड़ सकते। मेरे लिए तुम सबसे कीमती हो, न कि ये कप। और देखो, अभी तुम्हारे हाथों की मेंहदी भी नहीं उतरी है। अभी तुम और राहुल एक-दूसरे के साथ समय बिताओ और एक-दूसरे को समझो, ताकि तुम्हारी शादी की नींव मजबूत हो। प्रीति, अपनी भाभी का ख्याल रखना, अभी वह इस घर में नई है। नीतू, तुम मुझे अपनी माँ समझना। मुझे तुम्हारा दिल जीतना है, सास बनकर नहीं, बल्कि माँ बनकर।"


सुमित्रा देवी के ये शब्द नीतू के लिए अमृत के घूँट जैसे थे। उसकी आँखों में आंसू छलक आए और वह सुमित्रा देवी के पैरों में गिरकर बोली, "माँ, मैंने एक माँ छोड़ी थी, लेकिन यहां आकर मुझे दूसरी माँ मिल गई। बल्कि, आप तो मेरी माँ से भी ज्यादा ममता से भरी हुई हैं। अगर मेरे मायके में कप टूट जाता, तो माँ भी बिना कुछ कहे नहीं रहतीं।"


रात को नीतू को नींद नहीं आ रही थी। वह बार-बार शाम की घटना को याद कर रही थी और अपने अतीत में खो गई। उसे याद आया कि जब उसके इकलौते भाई अभिषेक की शादी हुई थी, तब उसकी माँ शांति देवी ने उसकी भाभी स्वाति पर घर के काम की पूरी ज़िम्मेदारी डाल दी थी। माँ ने भाभी को एडजस्ट होने का समय नहीं दिया था। अभिषेक और स्वाति को कहीं बाहर जाने का मन होता, तो माँ का मुँह फूल जाता। कभी भी भाभी को खुलकर हँसते हुए नहीं देखा। समय के साथ भाभी ने सहन करना छोड़ दिया और घर में रोज़ झगड़े होने लगे।


एक दिन, स्वाति के हाथ से कांच का गिलास गिरकर टूट गया था। शांति देवी ने गुस्से में आकर भाभी को डांटा था, "इतना कीमती गिलास फोड़ दिया, रोज़ इतना खाती हो, फिर भी ध्यान नहीं रखती?" स्वाति ने भी पलटकर गुस्से में जवाब दिया था, "हां, मैं ही खाती हूँ, आप तो हमेशा खड़ी खड़ी हुक्म चलाती हैं। जब से आई हूँ, आपने मुझे कभी चैन से रहने नहीं दिया। हर रोज़ जली कटी सुनाने के सिवा आपको कोई और काम नहीं है।"


नीतू को अब समझ में आ रहा था कि उसकी माँ ने भाभी के साथ जैसा व्यवहार किया था, उसकी वजह से ही शायद अभिषेक और स्वाति आज अलग घर में रह रहे थे। लेकिन आज की घटना ने उसकी सोच बदल दी थी। उसे लगा कि हर सास और बहू के रिश्ते में ऐसा नहीं होता है।


नींद न आने की वजह से नीतू ने सोचा कि माँ से बात कर लेती हूँ। उसने फोन उठाया और देर रात अपनी माँ को कॉल किया। फोन उठाते ही शांति देवी ने पूछा, "नीतू, सब ठीक तो है ना? कहीं राहुल या सास-ननद से झगड़ा तो नहीं हो गया?"


नीतू ने हंसते हुए कहा, "नहीं माँ, ऐसा कुछ नहीं है। लेकिन आज कुछ ऐसा हुआ जिससे मेरा दिल भर आया।" और फिर उसने अपनी माँ को सारी घटना बताई, कि कैसे उसकी सास सुमित्रा देवी ने उसे प्यार से संभाला था और कप टूटने पर भी कोई गुस्सा नहीं किया था।


माँ ने चुपचाप सब सुना और फिर धीरे से बोली, "बेटा, मैं सोच भी नहीं सकती थी कि ऐसा भी हो सकता है।"


नीतू ने गहरी सांस लेकर कहा, "माँ, काश आपने भी भाभी के साथ ऐसा ही व्यवहार किया होता, तो शायद आज भइया-भाभी अलग घर में नहीं रहते। सुमित्रा माँ ने मुझे समझाया कि सास-बहू का रिश्ता प्यार और समझदारी से बनता है। उन्होंने शुरू से ही अपने प्रेम से नींव मजबूत कर ली है, इसलिए हमारे परिवार में मज़बूती कैसे नहीं आएगी?"


आज शांति देवी को महसूस हो रहा था कि उनकी बेटी नीतू अब उनकी माँ बनकर उन्हें एक अच्छी सीख दे रही है।


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