शहर के शोर-शराबे से दूर

वो है ना 

शहर के शोर-शराबे से दूर, एक छोटे से गांव में रहने वाला रमेश, एक दिन व्यस्तता से थक कर अपने घर लौटा। उसके मन में अशांति और चिंता थी। उसने बाजार में कुछ सब्जियाँ खरीदी और सोचते हुए घर पहुंचा कि आज शायद खिचड़ी या मैगी बना लेगा। कई दिनों से उसकी पैंट धुली नहीं थी, और वह एक ही पैंट को बार-बार पहनता था

एक हाथ से कंधे पर लटके बैग को संभालते हुए और दूसरे हाथ में दूध की थैली पकड़े हुए, रमेश पसीने से तरबतर होकर घर पहुंचा। उसने देखा कि दरवाजे का ताला खुला था, और अंदर जाने पर उसे आश्चर्य हुआ। घर में एक अजीब सा सुकून और शांति थी। 

जैसे ही वह अंदर गया, उसने देखा कि घर में सब कुछ व्यवस्थित था। फ्रिज खुला और भरा हुआ था, और उसमें अचार और मैथी की भाजी करीने से रखी हुई थी। सुबह तो फ्रिज में बिस्किट पैकेट रखने की भी जगह नहीं थी, लेकिन अब वह साफ और व्यवस्थित था। रमेश ने अपनी खरीदी हुई सब्जियाँ फ्रिज में रखी और देखा कि पानी की टंकी भी पूरी तरह भरी हुई थी। 

घर के कोने से अगरबत्ती की खुशबू आ रही थी, जो उसकी आत्मा को सुकून दे रही थी। रमेश ने देखा कि उसके बिस्तर पर पड़ा तौलिया सूख रहा था, और अलमारी में सारे कपड़े इस्त्री किए हुए और व्यवस्थित थे। 

रमेश ने सोचा कि सुबह एक रुमाल नहीं मिल रहा था, लेकिन अब वह साफ और व्यवस्थित था। मोजे भी एक जगह पर थे, और रंग-बिरंगे शर्ट्स सुंदर हैंगर पर टंगी हुई थीं। 


टीवी के सामने बैठते हुए, रमेश ने देखा कि टीवी अब साफ है और स्क्रीन पर चित्र स्पष्ट दिख रहे थे। किचन में जाने पर, उसे लहसुन और प्याज की बदबू की जगह स्वादिष्ट भोजन की सुगंध मिल रही थी। 

रमेश ने बाहर आकर टीवी के सामने एक कुर्सी पर बैठा और अपनी आंखें बंद कर लीं। जब उसने आंखें खोलीं तो उसकी आँखों में आँसू थे। गरमागरम पकौड़े और भाप निकलती चाय टेबल पर रखी हुई थी। यह सब देखकर उसकी आत्मा को एक अनमोल सुकून मिला। 

रमेश को एहसास हुआ कि यह सब इसलिए है क्योंकि आज उसकी पत्नी घर पर है। उसकी पत्नी, जो उसकी ज़िंदगी में एक अनमोल हिस्सा है, और जो घर को असली घर बनाती है। 

इस संसार के सुख और समृद्धि की प्रदाता, एक स्त्री ही होती है – चाहे वह माँ हो, पत्नी हो, बहन हो, या बेटी हो। एक स्त्री का घर में होना, उसे घर बनाता है। सभी से अनुरोध है कि आप अपनी जिंदगी की किसी भी स्त्री को समझें और उसकी अहमियत को जानें, उसे आदर और स्नेह दें।


स्वार्थ : जैसे को तैसा


सुशीला जी की आदत थी कि सुबह उठने के बाद उन्हें गर्म पानी चाहिए होता था। इसलिए सुबह से दो बार उठकर, कमरे के बाहर निकलकर, वह देख चुकी थीं लेकिन अभी तक बहु नंदिनी और बेटा समीर उठे तक नहीं थे। जब तक उन लोगों में से कोई एक उठेगा नहीं तब तक उन्हें गर्म पानी मिलेगा नहीं।

बात ये नहीं थी कि सुशीला जी गरम पानी खुद से कर नहीं सकती थीं। असल बात यह थी कि बहु नंदिनी रात को रसोई का काम खत्म कर, न जाने क्यों, रसोई में ताला लगा देती थी। अब जब तक ताला खुलेगा नहीं, सुशीला जी को गर्म पानी मिलेगा कैसे?

आखिरकार घड़ी में जब 9:00 बज गए और सुशीला जी से रहा नहीं गया तो उन्होंने हिम्मत करके बेटे के कमरे का दरवाजा खटखटाया। दो-तीन बार दरवाजा खटखटाने के बाद नंदिनी की जगह समीर ने आकर दरवाजा खोला और तमतमाते हुए बोला, "क्या है मां? सुबह-सुबह परेशान कर रही हो?

"बेटा मुझे गर्म पानी चाहिए था। रसोई में ताला लगा हुआ है। तुम रसोई का दरवाजा खोल दो ताकि मैं गर्म पानी कर सकूं।"

"एक दिन गर्म पानी के बगैर नहीं रह सकती हो क्या मां? रोज तो नंदिनी करके दे ही देती है ना! आज संडे था इसलिए सोचा था कि थोड़ा आराम से उठेंगे, पर आप भी ना?" कहते-कहते समीर अंदर कमरे में गया और नंदिनी को जगाया।

नंदिनी भी तिलमिलाते हुए उठी और चाबी लाकर सुशीला जी के हाथ में रख दी, "अब रसोई का दरवाजा आप ही खोल लीजिए। खुद के लिए गर्म पानी करो तो हमारे लिए भी चाय बना देना। जल्दी नींद खुलने से मेरा सिर दर्द करने लगा। अपनी बहू को सोता देख कर कभी कोई सास खुश हुई है क्या जो आप मुझे सोते देखकर खुश होंगी? रोज तो सुबह से ही मशीन बनी रहती हूं, कम से कम संडे को तो थोड़ा आराम कर लेने दें। आप सास लोगों का बस चले तो बस बहू को मशीन बनाकर रख दें।" नंदिनी बड़बड़ाती हुई वापस जाकर पलंग पर लेट गयी।

आखिर सुशीला जी ने जाकर रसोई का दरवाजा खोला। खुद के लिए भी पानी गर्म किया और बेटे बहू के लिए चाय बनाकर उन्हें देकर आयी। वह गर्म पानी लेकर अपने कमरे में आई ही थी कि पाँच साल का पोता आरव जाग गया। जगते ही वह बोला, "दादी, मेरा दूध।"

उसे देख सुशीला जी मुस्कुरा कर बोली, "हां मेरे बच्चे अभी लेकर आती हूं।"

गर्म पानी वहीं रखकर पहले वह आरव के लिए दूध गर्म करने चली गयी। अभी दूध गर्म कर ही रही थी कि इतने में समीर की आवाज आई, "माँ, ओ माँ, कहां हो तुम? क्या आप भी सुबह-सुबह संभाल नहीं सकती इसे। आपको पता है ना कि नंदिनी के सिर में दर्द हो रहा है?" कहते-कहते समीर भी रसोई में आ गया। साथ में आरव भी गोद में था।

समीर को रसोई में देखते ही सुशीला जी बोली, "बेटा मैं तो आरव के लिए ही दूध गर्म करने आयी थी। मुझे नहीं पता ये कब तुम्हारे कमरे में चला गया?"

"तो ध्यान रखना चाहिए था ना आपको? आपको तो बस कोई न कोई काम का बहाना चाहिए। मानता हूं कि आप सास हो, पर बहू को भी तो इंसान समझो। वही है जो आपकी जिम्मेदारी निभा रही है। नहीं तो दूसरे बेटे बहू ने तो आपको रखने से ही मना कर दिया था?"

आरव को सुशीला जी के पास छोड़कर ही समीर वापस अपने कमरे में चला गया। सुशीला जी देखती ही रह गयीं। उनकी आंखों में आंसू आ गए। मन ही मन वह सोचने लगीं कि मैं कुछ ना करने पर भी बदनाम हो रही हूं। ऐसी कौन सी जिम्मेदारी उठा ली है इन लोगों ने मेरी, जो मुझे इतना सुना जाते हैं? ऐसा सोचकर उन्होंने अपने आंसू पोछे और आरव और उसका दूध लेकर कमरे में आ गयीं।

नाश्ते के समय समीर ने नंदिनी से कहा, "तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है तो मैं मां से कह कर नाश्ता बनवा लेता हूँ ताकि तुम आराम कर सको।"

"रहने दो, उनसे कुछ मत कहना। मैं नाश्ता खुद ही बना लूंगी।"

"अरे पर तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है।"

"नहीं नहीं, मैं खुद ही नाश्ता बना लूंगी। उनका क्या भरोसा? कौन सा सामान उठाकर अपने दूसरे बेटे बहु को देकर आ जाए? अक्सर रसोई से सामान कम हो जाता है। मुझे तो पूरा यकीन है मां जी ही सामान की हेराफेरी करती हैं और अपने उन बेटे बहू को देकर आ जाती हैं।" ऐसा बोलकर नंदिनी रसोई में जाकर नाश्ता तैयार करने लगी।

नंदिनी को रसोई में नाश्ता तैयार करते देखकर समीर गुस्से में आकर सुशीला जी से बोला, "देख लो मां, ये सब आपके कारण है। उसकी तबीयत खराब है पर फिर भी वह नाश्ता तैयार कर रही है। आपकी इन्हीं हरकतों के कारण हम परेशान हो चुके हैं। पता नहीं भगवान भी हमें चैन से कब रहने देगा?"

सुशीला जी बेटे की बात सुनकर हैरान रह गईं। वह अपने कमरे में चुपचाप शांति पूर्वक बैठ गईं। उनकी आंखों से झर-झर आंसू बहे जा रहे थे। मन ही मन वह सोच रही थीं कि क्या इसी दिन के लिए इन बेटों को जन्म दिया था? जब शादी के सात साल बाद मंदिर-मंदिर माथा टेकने के बाद उन्हें दो जुड़वा बेटे हुए थे तो कितने खुश हुए थे घर में सब लोग?

यार, दोस्त, रिश्तेदार सभी लोगों ने कितनी बधाईयां दी थीं। सासू मां तो बलैया लिए जा रही थीं, "अरे! दो-दो बेटों की मां बनी है। बुढ़ापे में बैठकर राज करेगी राज।"

कुछ साल बाद जब पति का देहांत हो गया तब भी सुशीला जी ने हिम्मत करके अपनी दोनों बेटे समीर और राजन को संभाला। कितनी परेशानी झेलकर भी इन लोगों को पढ़ाया लिखाया, इतना बड़ा किया। दोनों की शादी करायी पर उसके बाद सब कुछ बदल गया।

दोनों बहुओं की आपस में बनी नहीं। इस कारण बेटों में भी झगड़े होने लगे। आखिरकार दोनों बेटे अलग हो गए। सुशीला जी के पति ने दो मंजिला मकान बनवाया था। उसी में ऊपरी मंजिल पर राजन अपनी पत्नी के साथ रहने लगा और नीचे वाले फ्लोर पर समीर अपनी पत्नी और सुशीला जी के साथ रहने लगा।

सुशीला जी को रखने को लेकर भी दोनों भाइयों में बहस हुई थी। राजन ने साफ मना कर दिया था कि वह मां को अपने पास नहीं रखेगा तो मजबूरी में समीर को ही अपने पास सुशीला जी को रखना पड़ा था। सच कहूं तो उस समय की (बेटे के जन्म के समय) की बधाईयां आज कानों में चुभ रही थीं।

थोड़ी देर बाद समीर कमरे में आया और पोहे की प्लेट सुशीला जी के सामने टेबल पर रखते हुए या यूँ कहिए पटकते हुए बोला, "लो, नाश्ता कर लो आखिर एक ही बहू को ही परेशान करते जाओ। दूसरी से कोई लेना-देना ही नहीं।"

सुशीला जी को समीर की बात बहुत बुरी लग रही थी। उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे कि पोहे की प्लेट उन्हें चिढ़ा रही है। ऐसा खाना भी किस काम का जो तिरस्कार करके दिया जाए। सुशीला जी ने उस नाश्ते की प्लेट को हाथ भी नहीं लगाया। आखिरकार सुशीला जी ने काफी सोचा। और सोच समझकर वह एक निर्णय पर पहुंची।

शाम को राजन अपनी पत्नी के साथ बाहर कहीं घूमने जा रहा था। समीर और नंदिनी भी बाहर खड़े हुए थे कि तभी एक प्रॉपर्टी ब्रोकर उनके घर पर आया। उसे देखकर चारों बेटे बहू हैरान रह गए। उसने आते ही पूछा, "क्या मैं सुशीला जी से मिल सकता हूं?"

"आपको सुशीला जी से क्या काम है? हमें बताइए, हम उनके बेटे हैं" समीर ने कहा।

"जी मुझे सुशीला जी ने फोन करके बुलाया है।" सब एक दूसरे को हैरानी से देखने लगे। इतने में सुशीला जी अंदर से आयीं।

"क्या आप ही सुशीला जी हैं?"

"जी मैं ही सुशीला हूं। आप.."

"जी आपने सुबह फोन किया था मकान को बेचने की बात करने के लिए..."

"अरे हां, मैंने ही आपको फोन किया था।"

इससे पहले सुशीला जी आगे कुछ कहती, समीर बोला, "कौन सा मकान बेच रही हो आप? हमसे पूछे बगैर आप यह निर्णय कैसे ले सकती हो?"

"माँ मकान बेच दोगी तो हम कहां जाएंगे" राजन ने भी कहा।

"क्या तुम लोगों ने कभी मेरे बारे में सोचा था कि मैं कहां रहूंगी? कैसे

 रहूंगी? सुनाने में तुम लोग तो मुझे कोई कसर नहीं छोड़ते हो। मकान तो मेरे पति का बनाया हुआ है। मेरे नाम पर है। फिर किस हक से मकान में हिस्सा मांग रहे हो?"

"पर मां जी, समस्या क्या है? आप मकान को बेच दोगी तो फिर आप उन पैसों का करोगी क्या?" नंदिनी ने कहा।

"सोच रही हूं कि वापस गांव चली जाऊं। जहां से जिंदगी की शुरुआत हुई थी, वहीं जाकर अपनी जिंदगी के अंतिम दिन देखूं। इसलिए मैं मकान बेचकर गांव में ही जमीन खरीद रही हूं। और वही रहूंगी।"

"फिर हम लोगों का क्या होगा?" छोटी बहू ने कहा।

"मुझे नहीं पता। तुम लोगों के तो हाथ पैर चलते हैं और उससे भी तेज जबान चलती है। अपने आप कमाओ और अपनी प्रॉपर्टी बनाओ। बाकी मुझे नहीं पता।"

"माँ तुम इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हो?" समीर और राजन एक साथ बोले।

"मां को महानता का चोला मत पहनाओ। जैसे बेटे स्वार्थी हो सकते हैं, वैसे ही मां भी स्वार्थी हो सकती है और अगर बेटे तुम जैसे हो तो मां को ऐसी ही होनी चाहिए। मैं यह मकान बेच रही हूं और यह मेरा अंतिम निर्णय है। तुम लोग अपना बंदोबस्त कहीं और देख लो।" कहकर सुशीला जी उस ब्रोकर को मकान दिखाने चल दी।

एक महीने बाद वो मकान बिक गया और सुशीला जी गांव में एक मकान लेकर वहीं रहने लगीं। खाली समय में वह वहां बच्चों को पढ़ाती थीं और गांव के शांत वातावरण में अपनी जिंदगी जीती थीं

Download

टिप्पणियाँ