शाम का वक्त था

शाम का वक्त था, जब मेरे सीने के बायीं तरफ़ हल्का-हल्का दर्द महसूस हुआ। लेकिन ऐसा दर्द, जो अचानक आकर चला जाता है, महिलाओं के जीवन में कोई नई बात नहीं होती। हमने तो ऐसे दर्द को अपनी चाय के साथ पीना ही सीख लिया है। मैंने भी इसे हल्के में लिया और रात के खाने की तैयारी में लग गई।

किचन के कामों से निपटकर जब सोने को आई, तो पति को इस दर्द के बारे में बताया। उन्होंने एक दर्द की दवा दी और आराम करने की सलाह दी। साथ ही, थोड़ा कम काम करने की नसीहत देते हुए मीठी सी डांट भी लगा दी।


रात के सन्नाटे में, अचानक दर्द फिर से उभर आया। इस बार यह कुछ ज़्यादा ही तेज़ था, साँस लेना भी मुश्किल हो रहा था। अचानक दिमाग में ख़्याल आया, "कहीं ये हार्ट अटैक तो नहीं?" इस विचार ने मुझे अंदर तक हिला दिया, और मैं पसीने में नहा उठी।


लेकिन, जैसे ही यह ख़्याल मन में आया, मेरी चिंता की दिशा बदल गई। "हे भगवान! अगर कुछ हो गया तो... पालक-मेथी तो अभी तक साफ़ भी नहीं किए। मटर भी छिलने बाकी हैं। फ़्रीज़ में मलाई का भगोना भरा पड़ा है, आज मक्खन निकालना था। मर गई तो लोग कहेंगे, 'देखो, कितना गंदा फ़्रीज़ रखा था।' और कपड़े? वो तो प्रेस करने भी नहीं दिए। चावल भी ख़त्म होने वाले हैं, बाज़ार जाकर राशन लेना था। मेरे बाद लोग बारह दिनों तक यहाँ रहेंगे, उनके पास मेरे मिसमैनेजमेंट के किस्से होंगे।"


सीने का दर्द अब कहीं पीछे छूट गया था, और उसका स्थान काल्पनिक अपमान के दर्द ने ले लिया था। "नहीं भगवान! प्लीज़, आज मत मारना। आज ना तो मैं तैयार हूँ और ना ही मेरा घर।"


इन विचारों के साथ मैं अनजाने में गहरी नींद में सो गई। सुबह होते ही फिर से वही गृहकार्य में जुट गई। जैसे कोई काम खत्म ही नहीं होता।


मन में बस यही सोच आई, "चैन से मर भी नहीं सकती, इस घर को तो संभालने की चिंता में ही उलझी रहूंगी।"


इस कहानी को उन सभी सखियों और गृहणियों को समर्पित करती हूँ, जो घर के कामों में खोई रहती हैं, जिनके पास अपने लिए भी वक़्त निकालना मुश्किल हो जाता है।


अक्सर मैं नीरा जी से पूछती थी, "आपका तलाक क्यों हुआ?" लेकिन हर बार वह मुस्कान के साथ बात को टाल जातीं। मुझे हमेशा लगता था

कि शायद उनके पति किसी बुरी आदत का शिकार रहे होंगे, या फिर बेरोजगार रहे होंगे। पर ऐसा कुछ भी नहीं था। नीरा जी का विवाह एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था, और उनके पति सरकारी नौकरी में थे। एक दिन, जब मैंने फिर से पूछने की हिम्मत की, तो उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा, "ज़रूरी नहीं कि सरकारी नौकरी और अच्छे परिवार का होने से इंसान के संस्कार भी अच्छे हों।"


नीरा जी ने धीरे-धीरे अपनी कहानी सुनाई। उनकी शादी के शुरुआती दिनों में सब कुछ सामान्य था। लेकिन छोटी-छोटी बातों पर उनके पति का गुस्सा बढ़ने लगा। अक्सर कहासुनी होती और उनके पति हर बार यह कहते, "मेरी सरकारी नौकरी है, तुम्हारी जैसी दस मिल जाएंगी।" इस तरह के तानों ने नीरा जी के दिल पर गहरी चोट की थी। हर बार ये शब्द उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाते थे, लेकिन वे चुप रहतीं।


फिर एक दिन ऐसा आया जब उनका धैर्य जवाब दे गया। वह अपने पति और ससुराल वालों को छोड़कर मायके लौट आईं। उन्होंने पति से कहा, "अब तुम मेरी जैसी दस लोगों के साथ ही रहो।" इसके बाद उन्होंने अपने रिश्ते को समाप्त करने का फैसला किया, लेकिन कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने की बजाय चुपचाप अपने जीवन को नए सिरे से शुरू किया। उन्होंने कभी तलाक के लिए कोई कदम नहीं उठाया। "कौन कोर्ट के चक्कर काटे?" उन्होंने कहा, और बेटे की परवरिश के लिए भी कभी अपने पति से आर्थिक सहायता नहीं मांगी।


पच्चीस साल यूँ ही बीत गए। उनके पति ने कभी उन्हें लौटने के लिए नहीं कहा, और न ही उन्होंने खुद कभी वापसी की बात की। उनका बेटा अब बड़ा हो चुका था, उसकी शादी भी हो गई थी। बेटे ने कभी अपने पिता के बारे में कोई सवाल नहीं किया, न ही उनसे मिलने की इच्छा जताई। नीरा जी ने मायके लौटने के बाद बी.एड. की पढ़ाई की और एक स्कूल में शिक्षिका के रूप में नौकरी हासिल की। अपने दम पर बेटे को पाल-पोसकर अच्छा इंसान बनाया।


उनके पति ने भी कभी दूसरा विवाह नहीं किया, और नीरा जी ने भी। फिर एक दिन, उनके पति ने अचानक रिटायरमेंट के बाद उनसे संपर्क किया। उन्होंने नीरा जी से उनके पुराने दिनों की तस्वीरें और कुछ यादें मांगीं, लेकिन नीरा जी ने सब कुछ ठुकरा दिया। उनके लिए वह रिश्ता अब सिर्फ एक बीती हुई याद बनकर रह गया था।


नीरा जी की कहानी ने मुझे सिखाया कि कभी-कभी कुछ बातें किसी के दिल को इतनी गहरी चोट पहुंचा देती हैं कि उसके सामने पैसा या रिश्ता कोई मायने नहीं रखते। शब्दों की शक्ति बहुत बड़ी होती है। जो बातें एक बार कह दी जाती हैं, वे दिल में बस जाती हैं और उस रिश्ते को कभी पहले जैसा नहीं रहने देतीं। इसलिए, किसी के साथ कुछ भी बोलने से पहले यह सोचना ज़रूरी है कि उसकी सहनशक्ति कितनी है, क्योंकि हर कोई हर बात को बर्दाश्त नहीं कर सकता।


(यह कहानी एक पक्ष की सुनवाई पर आधारित है, और इसकी सत्यता का मैं दावा नहीं करती।)

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