75 हजार डॉलर का चेक और एक चिट्ठी

मेरी बिटिया की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी लेकर शादी के तमाम इंतजाम देख रहा था। एक दिन सफर से लौटकर जब मैं घर आया तो पत्नी ने मुझे एक लिफाफा पकड़ाया। लिफाफा अनजाना था, लेकिन प्रेषक का नाम देखकर मुझे आश्चर्य हुआ।

'अजय सिंह' - यह नाम मैंने वर्षों से नहीं सुना था। मैंने लिफाफा खोला तो उसमें 75 हजार डॉलर का चेक और एक चिट्ठी थी। इतनी बड़ी राशि मेरे नाम पर! मैंने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला। पत्र में लिखा था:

आदरणीय सर, यह छोटी सी भेंट मेरी ओर से आपके लिए है। मुझे नहीं लगता कि मैं आपके एहसानों का कर्ज कभी उतार पाऊंगा। यह उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है। घर पर सभी को मेरा प्रणाम।

आपका,

अजय।

मेरी आँखों के सामने अचानक वर्षों पुराने दिन तैर गए।

**पुरानी यादें**

एक दिन मैं लखनऊ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलट-पलट रहा था। तभी मैंने देखा कि एक लड़का बाहर पुस्तकों के ढेर के पास खड़ा हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ विनती कर रहा था और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर खड़ा हो जाता। मैं उसे काफी देर तक देखता रहा। पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों की सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी। वह हर बार नई आशा के साथ कोशिश करता, फिर निराश हो जाता।

मैं अपनी उत्सुकता को दबा नहीं पाया और उसके पास जाकर खड़ा हो गया। वह लड़का कुछ सामान्य विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था। मुझे देखकर उसने फिर उम्मीद से पुस्तकें दिखानी शुरू कीं। लड़के की साफ-सुथरी पर साधारण पोशाक, आत्मविश्वास और ठंड में केवल एक हल्का स्वेटर पहने देखकर मैंने उससे पूछा, "बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?"

"आप कितना दे सकते हैं, सर?"

"अरे, कुछ तो सोचा होगा।"

"आप जो दे देंगे," लड़का थोड़ा निराश होकर बोला।

"तुम्हें कितना चाहिए?" मैंने पूछा।

"10 हजार रुपए," वह लड़का कड़वाहट से बोला।

"इन पुस्तकों की इतनी कीमत नहीं है।" मैंने अपनी बात को सही ठहराने की कोशिश की।

लड़के का चेहरा देखने लायक था। जैसे ढेर सारी निराशा उसके चेहरे पर छा गई हो। मुझे अपने कहे पर पछतावा हुआ। मैंने उसका कंधा थपथपाते हुए पूछा, "देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है? साफ-साफ बताओ कि क्या जरूरत है?"

लड़का जैसे फूट पड़ा। उसने कहा, "सर, मैं 10+2 कर चुका हूं। मेरे पिता एक छोटे रेस्तरां में काम करते हैं। मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है, अब उसमें प्रवेश के लिए पैसे की जरूरत है। मेरे पिताजी कुछ पैसे दे सकते हैं, लेकिन पूरा इंतजाम नहीं हो पा रहा है।"

"तुम्हारा नाम क्या है?" मैंने पूछा।

"अजय सिंह।"

"तुम सिंह हो और दिल छोटा करते हो। कितना पैसा चाहिए?"

"10 हजार," इस बार उसके स्वर में विनम्रता थी।

"अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं," मैंने मुस्कराते हुए पूछा।

"सर, आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं। अगर पैसे का इंतजाम नहीं हुआ तो मैं भी आपको किसी होटल में कप प्लेटें धोता हुआ मिलूंगा," लड़के ने आशंका व्यक्त की।

उसके स्वर में न जाने क्या बात थी जो मेरे दिल में उसकी मदद करने की भावना जागृत हो गई। मैंने 10 हजार रुपए उसे दिए। उसने मेरे पैर छुए और आंसुओं से भरी आँखों से मुझे धन्यवाद कहा।

**वर्षों बाद**

कार चलाते हुए मैं उस घटना के बारे में सोच रहा था और अपने किए हुए काम को याद कर रहा था। 

दिन बीतते गए और एक दिन अजय का पत्र आया कि वह ऑस्ट्रेलिया उच्च शिक्षा के लिए जा रहा है। मैंने उसे दोबारा कुछ पैसे भेजे। उसके पत्रों में हर बार आर्या के लिए एक संदेश होता था, जिसे वह अपनी बहन मानता था।

समय गुजरता गया और एक दिन अजय ने अपनी शादी का कार्ड भेजा। आर्या भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी और उसकी शादी तय हो चुकी थी। फिर, मुझे अजय का एक चेक और पत्र मिला।

**शादी के दिन**

शादी की गहमागहमी चल रही थी। तभी एक बड़ी सी गाड़ी आकर रुकी। एक संभ्रांत व्यक्ति और उसकी पत्नी, जिनकी गोद में बच्चा था, गाड़ी से बाहर निकले। 

"सर, मैं अजय..." उस व्यक्ति ने श्रद्धा से कहा।

मेरी पत्नी चौंक गईं और मैंने अजय को गले लगा लिया। अजय ने बताया कि वह अब एक बड़ा डॉक्टर बन गया है और ऑस्ट्रेलिया में ही बस चुका है। उसकी पत्नी और बच्चे से मिलने का सुखद अनुभव रहा।

आर्या की शादी बहुत अच्छी तरह से संपन्न हुई और मैं अपने किए गए अच्छे काम पर गर्व महसूस कर रहा था। अजय का चेक और उसकी चिट्ठी मेरे लिए अमूल्य धरोहर हैं। यह कहानी बताती है कि किसी की मदद करने से न केवल उनकी जिंदगी बदलती है, बल्कि खुद का जीवन भी नए अर्थ में खिल उठता है।

सहायता करने का महत्व: किसी की मुश्किल समय में मदद करना कभी व्यर्थ नहीं जाता, बल्कि यह आपके और उनके जीवन में सकारात्मक प्रभाव छोड़ता है।

दया और विश्वास: सागर की सफलता और आभार की भावना दर्शाती है कि दूसरों में विश्वास और दया कितनी महत्वपूर्ण होती है।

समर्पण का फल: सागर की कड़ी मेहनत और संघर्ष ने उसे जीवन में ऊँचाइयों तक पहुँचाया।

परिवार का महत्व: सागर ने अपने अनुभवों को पत्रों के माध्यम से आर्या के साथ साझा किया, जो एक अटूट पारिवारिक बंधन को दर्शाता है।

समाज की भलाई में योगदान: हमें हमेशा दूसरों की सहायता करने के लिए तैयार रहना चाहिए, जिससे समाज में सकारात्मक बदलाव आ सके।


एक बार बस में सफर के दौरान मेरे बगल में एक बूढ़ी माई आकर बैठी। वह लगातार रो रही थी। उनकी सिसकियों से मेरा दिल पिघल गया। मैंने उनसे पूछा, "माई, क्या हुआ? आप क्यों रो रही हो? आपको कहीं चोट लगी है क्या?" पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उनका रोना मुझसे सहन नहीं हुआ, तो मैंने फिर कहा, "मैया, मुझे अपना बेटा समझकर बता दो, क्यों रो रही हो।"


तब उन्होंने मुझे एक लिफाफा पकड़ाया। लिफाफा खोलकर देखा, तो उसमें चार पेड़े, दो मोर पंख और एक चिट्ठी थी। मैंने चकित होकर पूछा, "मैया, यह सब क्या है?" 


तब बूढ़ी मां ने बताना शुरू किया, "बेटा, कल मैं वृंदावन के बांके बिहारी जी के मंदिर गई थी। वहां मैंने श्रद्धा से ₹100 दान पेटी में डाले और दर्शन के लिए आगे बढ़ी। मैंने पंडित जी से कहा, 'यह लीजिए आपका एक पेड़ा। कृपा करके मुझे दो पेड़े दे दीजिए।' मगर पंडित जी ने मुझे दो पेड़े देने से मना कर दिया। तभी मैंने गुस्से में पंडित जी से कहा, 'मैंने ₹100 दान पेटी में डाले हैं।'


पंडित जी बोले, 'मां, यहां सबको एक ही पेड़ा मिलता है, चाहे ₹100 डालो या ₹200। अगर ऐसा है तो आप यह पेड़ा भी रख लीजिए, मुझे नहीं चाहिए।' नाराज होकर जा रही थी, तो पंडित जी ने कहा, 'जाइए, भगवान के भक्तों की कमी नहीं है।'


मैंने गुस्से में पंडित जी को अपना एक पेड़ा भी वापस दे दिया और बिहारी जी को कोसते हुए मंदिर से बाहर आकर बैठ गई। 'बांके बिहारी, तुम इतने कठोर कैसे हो सकते हो? मैंने तुम्हारे नाम पर अपना सब कुछ समर्पित किया और बदले में मुझे क्या मिला? एक पेड़ा और ठुकराने वाला पंडित। अगर यही तुम्हारी भक्ति का फल है, तो लो, रख लो अपना पेड़ा। मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा प्रसाद।'


बाहर बैठी-बैठी मेरी आंखें आंसुओं से भर गईं कि तभी एक सुंदर बालक आया। उसने बड़ी मासूमियत से कहा, "मैया, मेरा प्रसाद पकड़ लोगी? मैं जूते पहन कर आता हूं।" मैंने उसका नन्हा सा हाथ पकड़ा और कहा, "हां बेटा, इधर दे।" 


उसने अपना प्रसाद मेरे हाथों में सौंप दिया और जूते पहनने लगा। फिर उसने कहा, "मैया, मैं हाथ धोकर आता हूं।" वह चला गया, लेकिन लौटकर नहीं आया। मैंने बहुत देर इंतजार किया। फिर लिफाफा खोला, उसमें चार पेड़े, दो मोर पंख और एक चिट्ठी थी। चिट्ठी पढ़कर मेरी आंखों में आंसू आ गए। उसमें लिखा था:


*"मैया, नाराज मत होना। आपके लाल को कष्ट होता है। मैं आपके लिए चार पेड़े लेकर आया हूं। आप मेरे लिए सब कुछ हो। आपका कानहा।"*


चिट्ठी पढ़ते ही मेरी आंखों के सामने सब कुछ धुंधला हो गया। मैं सोचने लगी, मैं कितनी स्वार्थी हूं जो दान पेटी में डाले पैसे के बदले में भी मंदिर के अंदर पंडित जी से और अधिक मांग रही थी। लेकिन फिर भी बिहारी जी ने मेरी गलती माफ कर दी और अपने अद्भुत दर्शन दिए।"


बूढ़ी मां की यह करुण कथा सुनकर मेरे भी आंसू निकल आए। उनकी बातों ने मेरे दिल को गहराई से छू लिया।


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