दो बैलों की कथा
जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुध्दिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पल्ले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है, या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता।
गायें सींग मारती हैं, ब्यायी हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है। किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहे गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सडी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दिखाई देगी। वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा।
उसके चेहरे पर एक स्थायी विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दु:ख, हानि-लाभ, किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ॠषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इतना अनादर कहीं न देखा। कादचित सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है।
देखिए न, भारतवासियों की अफ्रीका में क्यों दुर्दशा हो रही है? क्यों अमेरिका में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोडकर काम करते हैं, किसी से लडाई-झगडा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा जाते हैं, फिर भी बदनाम हैं। कहा जाता है, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं। अगर वे भी ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते, तो शायद सभ्य कहलाने लगते। जापान की मिसाल समाने है। एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया। लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कम ही गधा है, और वह है 'बैल। जिस अर्थ में हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में 'बछिया के ताऊ का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं है। बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अडियल बैल भी देखने में आता है। और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है।
झूरी काछी के दोनों बैलों के नाम थे हीरा और मोती। दोनों पछाई जाति के थे- देखने में सुन्दर, काम में चौकस, डील में ऊँचे। बहुत दिनों से साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आसपास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है।
दोनों एक-दूसरे को चाटकर और सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे- विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता।
जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाडी में जोत दिए जाते और गर्दन हिला-हिलाकर चलते उस वक्त हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज्याद-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। दिनभर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते, तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लेते। नाँद में खली-भूसा पड जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता था।
संयोग की बात है, झूरी ने एक बार गोईं को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम वे क्यों भेजे जा रहे हैं। समझे, मालिक ने हमे बेच दिया। अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने पर झूरी के साले गया को घर तक गोईं ले जाने में दाँतों पसीना आ गया। पीछे से हाँकता तो दोनों दाएँ-बाएँ भागते, पगहिया पकडकर आगे से खींचता तो दोनों पीछे को जोर लगाते। मारता तो दोनों सींग नीचे करके हुँकरते।
अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती, तो झूरी से पूछते- तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो? हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था, और काम ले लेते, हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथों क्यों बेच दिया?
संध्या समय दोनों बैल अपने नए स्थान पर पहुँचे। दिनभर के भूखे थे, लेकिन जब नाँद में लगाए गए, तो एक ने भी उसमें मुँह न डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गाँव, नए आदमी, उन्हें बेगानों से लगते थे।
दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गए। जब गाँव में सोता पड गया, तो दोनों ने जोर मारकर पगहे तुडा डाले और घर की तरफ चले। पगहे बहुत मजबूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड सकेगा: पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गई थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गईं।
झूरी प्रात: सोकर उठा, तो देखा कि दोनों बैल चरनी पर खडे हैं। दोनों ही गर्दनों में आधा-आधा गराँव लटक रहा है। घुटने तक पाँव कीचड से भरे हैं और दोनों की ऑंखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है।
झूरी बैलों को देखकर स्नेह से गद्गद् हो गया। दौडकर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य बडा ही मनोहर था।
घर और गाँव के लडके जमा हो गए और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गाँव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्वपूर्ण थी। बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों को अभिनंदन-पत्र देना चाहिए। कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड, कोई चोकर, कोई भूसी।
एक बालक ने कहा- ऐसे बैल किसी के पास न होंगे।
दूसरे ने समर्थन किया- इतनी दूर से दोनों अकेले चले आए।
तीसरा बोला- बैल नहीं हैं वे, उस जनम के आदमी हैं।
इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस न हुआ।
झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा, तो जल उठी। बोली- कैसे नमक-हराम बैल हैं कि एक दिन वहाँकाम न किया, भाग खडे हुए।
झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका- नमकहराम क्यों हैं? चारा-दाना न दिया होगा, तो क्या करते?
स्त्री ने रोब के साथ कहा- बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं।
झूरी ने चिढाया- चारा मिलता तो क्यों भागते?
स्त्री चिढी- भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुध्दुओं की तरह बैलों को सहलाते नहीं। खिलाते हैं, तो रगडकर जोतते भी हैं। ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूँ? कहाँ से खली और चोकर मिलता है, सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूँगी, खाएँ चाहे मरें।
वही हुआ। मजूर को बडी ताकीद कर दी गई कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाए।
बैलों ने नाँद में मुँह डाला तो फीका-फीका। न कोई चिकनाहट, न कोई रस। क्याखाएँ? आशा भरी ऑंखों से द्वार की ओर ताकने लगे।
झूरी ने मजूर से कहा- थोडी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे?
'मालिकन मुझे मार ही डालेंगी।
'चुराकर डाल आ।
'ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।
दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अबकी उसने दोनों को गाडी में जोता।
दो-चार बार मोती ने गाडी को सडक की खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने संभाल लिया। वह ज्यादा सहनशील था।
संध्या समय घर पहुँचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बाँधा और कल की शरारत का मजा चखाया। फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी सब कुछ दी।
दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी इन्हें फूल की छडी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उडने लगते थे। यहाँ मार पडी। आहत-सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा!
नाँद की तरफ ऑंखें तक न उठाईं।
दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पाँव न उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया, पर दोनों ने पाँव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डण्डे जमाए, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर हो गया। हल लेकर भागा। हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाट कर बराबर हो गया। गले में बडी-बडी रस्सियाँ न होती तो दोनों पकडाई में न आते।
हीरा ने मूक भाषा में कहा- भागना व्यर्थ है।
मोती ने उत्तर दिया- तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी।
'अबकी बडी मार पडेगी।
'पडने दो, बैल का जन्म लिया है तो मार से कहाँ तक बचेंगे।
'गया दो आदमियों के साथ दौडा आ रहा है। दोनों के हाथों में लाठियाँ हैं।
मोती बोला- कहो तो दिखा दूँ कुछ मजा मैं भी। लाठी लेकर आ रहा है।
हीरा ने समझाया- नहीं भाई! खडे हो जाओ।
'मुझे मारेगा, तो मैं भी एक-दो को गिरा दूँगा।
'नहीं। हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।
मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुँचा और दोनों को पकडकर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मारपीट न की, नहीं तो मोती भी पलट पडता। उसके तेवर देखकर गया और उसके सहायक समझ गए कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है।
आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनों चुपचाप खडे रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उस वक्त छोटी-सी लडकी दो रोटियाँ लिए निकली, और दोनों के मुँह में देकर चली गई।
उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शांत होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया। यहाँ भी किसी सज्जन का बास है। लडकी भैरो की थी। उसकी माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गई थी।
दोनों दिनभर जोते जाते, डण्डे खाते, अडते। शाम को थान पर बाँध दिए जाते और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे, मगर दोनों की ऑंखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था।
एक दिन मोती ने मूक भाषा में कहा- अब तो नहीं सहा जाता हीरा!
'क्या करना चाहते हो?
'एकाध को सीगों पर उठाकर फेंक दूँगा।
'लेकिन जानते हो, वह प्यारी लडकी, जो हमें रोटियाँ खिलाती है, उसी की लडकी है, जो इस घर का मालिक है। यह बेचारी अनाथ न हो जाएगी?
'तो मालकिन को न फेंक दूँ। वही तो उस लडकी को मारती है।
'लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूले जाते हो।
'तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते। बताओ, तुडाकर भाग चलें।
'हाँ, यह मैं स्वीकार करता, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे?
'इसका उपाय है। पहले रस्सी को थोडा-सा चबा लो। फिर एक झटके में जाती है।
रात को जब बालिका रोटियाँ खिलाकर चली गई, दोनों रस्सियाँ चबाने लगे, पर मोटी रस्सी मुँह में न आती थी। बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे।
सहसा घर का द्वार खुला और वही बालिका निकली। दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनों की पूँछें खडी हो गईं।
उसने उनके माथे सहलाए और बोली- खोले देती हूँ। चुपके से भाग जाओ, नहीं तो यहाँ लोग मार डालेंगे। आज घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जाएँ।
उसने गराँव खोल दिया, पर दोनों चुपचाप खडे रहे।
मोती ने अपनी भाषा में पूछा- अब चलते क्यों नहीं?
हीरा ने कहा- चलें तो लेकिन कल इस अनाथ पर आफत आएगी। सब इसी पर संदेह करेंगे।
सहसा बालिका चिल्लाई- दोनों फूफा वाले बैल भागे जा रहे हैं। ओ दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, जल्दी दौडो।
गया हडबडाकर भीतर से निकला और बैलों को पकडने चला। वे दोनों भागे। गया ने पीछा किया। और भी तेज हुए। गया ने शोर मचाया। फिर गाँव के कुछ आदमियों को भी साथ लेने के लिए लौटा। दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया। सीधे दौडते चले गए। यहाँ तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा। जिस परिचित मार्ग से आए थे, उसका यहाँ पता न था। नए-नए गाँव मिलने लगे। तब दोनों एक खेत के किनारे खडे होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए?
हीरा ने कहा- मालूम होता है, राह भूल गए।
'तुम भी बेतहाशा भागे। वहीं उसे मार गिराना था।
'उसे मार गिराते, तो दुनिया क्या कहती? वह अपना धर्म छोड दे, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोडें?
दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे। खेत में मटर खडी थी। चरने लगे। रह-रहकर आहट ले लेते थे, कोई आता तो नहीं है।
जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया, तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे। पहले दोनों ने डकार ली। फिर सींग मिलाए और एक-दूसरे को ठेलने लगे। मोती ने हीरा को कई कदम हटा दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया। तब उसे भी क्रोध अया। सँभलकर उठा और फिर मोती से भिड गया।मोती ने देखा- खेल में झगडा हुआ चाहता है, तो किनारे हट गया।
अरे! यह क्या? कोई साँड डौकता चला आ रहा है। हाँ, साँड ही है। वह सामने आ पहुँचा। दोनों मित्र बगलें झाँक रहे हैं। साँड पूरा हाथी है। उससे भिडना जान से हाथ धोना है, लेकिन न भिडने पर भी जान बचती नहीं नजर आती। इन्हीं की तरफ आ भी रहा है। कितनी भयंकर सूरत है।
मोती ने मूक भाषा में कहा- बुरे फँसे। जान बचेगी? कोई उपाय सोचो।
हीरा ने चिन्तित स्वर में कहा- अपने घमण्ड से फूला हुआ है। आरजू-विनती न सुनेगा।
'भाग क्यों न चलें?
'भागना कायरता है।
'तो फिर यहीं मरो। बंदा तो नौ-दो- ग्यारह होता है।
'और जो दौडाए?
'तो फिर कोई उपाय सोचो, जल्द!
'उपाय यही है कि उस पर दोनों जनें एक साथ चोट करें? मैं आगे से रगेदता हूँ, तुम पीछे से रगेदो, दोहरी मार पडेगी, तो भाग खडा होगा। मेरी ओर झपटे, तुम बगल से उसके पेट में सींग घुसेड देना। जान जोखिम है, पर दूसरा उपाय नहीं है।
दोनों मित्र जान हथेलियों पर लेकर लपके। साँड को भी संगठित शत्रुओं से लडने का तजरबा न था। वह तो एक शत्रु से मल्लयुध्द करने का आदी था। ज्यों ही हीरा पर झपटा, मोती ने पीछे से दौडाया। साँड उसकी तरफ मुडा, तो हीरा ने रगेदा। साँड चाहता था कि एक-एक करके दोनों को गिरा ले, पर ये दोनों भी उस्ताद थे। उसे वह अवसर न देते थे।
एक बार साँड झल्लाकर हीरा का अन्त कर देने के लिए चला कि मोती ने बगल से आकर पेट में सींग भोंक दी। साँड क्रोध में आकर पीछे फिरा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींग भोंक दिया। आखिर बेचारा जख्मी होकर भागा और दोनों मित्रों ने दूर तक उसका पीछा किया। यहाँ तक कि साँड बेदम होकर गिर पडा। तब दोनों ने उसे छोड दिया। दोनों मित्र विजय के नशे में झूमते चले जाते थे।
मोती ने अपनी सांकेतिक भाषा में कहा- मेरा तो जी चाहता था कि बच्चा को मार ही डालूँ।
हीरा ने तिरस्कार किया- गिरे हुए बैरी पर सींग न चलाना चाहिए।
'यह सब ढोंग है। बैरी को ऐसा मारना चाहिए कि फिर न उठे।
'अब घर कैसे पहुँचेंगे, वह सोचो।
'पहले कुछ खा लें, तो सोचें।
सामने मटर का खेत था ही। मोती उसमें घुस गया। हीरा मान करता रहा, पर उसने एक न सुनी। अभी दो चार ग्रास खाए थे कि दो आदमी लाठियाँ लिए दौड पडे और दोनों मित्रों को घेर लिया। हीरा तो मेड पर था, निकल गया। मोती सींचे हुए खेत में था। उसके खुर कीचड में धँसने लगे। न भाग सका। पकड लिया। हीरा ने देखा, संगी संकट में है, तो लौट पडा। फँसेंगे तो दोनों फँसेगे। रखवालों ने उसे भी पकड लिया। प्रात:काल दोनों मित्र काँजीहौस में बन्द कर दिए गए।
दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा साबिका पडा की सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला। समझ ही में न आता था, यह कैसा स्वामी है? इससे तो गया फिर भी अच्छा था। यहाँ कई भैसे थीं, कई बकरियाँ, कई घोडे, कई गधे, पर किसी के सामने चारा न था, सब जमीन पर मुर्दों की तरह पडे थे।
कई तो इतने कमजोर हो गए थे कि खडे भी नहीं हो सकते थे। सारा दिन दोनों मित्र फाटक की ओर टकटकी लगाए ताकते रहे, पर कोई चारा लेकर आता न दिखाई दिया। तब दोनों ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की, पर इससे क्या तृप्ति होती?
रात को भी जब कुछ भोजन न मिला, तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी।
मोती से बोला- अब तो नहीं रहा जाता मोती!
मोती ने सिर लटकाए हुए जवाब दिया- मुझे तो मालूम होता है प्राण निकल रहे हैं।
'इतनी जल्द हिम्मत न हारो भाई! यहाँ से भागने का कोई उपाय निकालना चाहिए।
'आओ दीवार तोड डालें।
'मुझसे तो अब कुछ नहीं होगा।
'बस इसी बूते पर अकडते थे?
'सारी अकड निकल गई।
बाडे की दीवार कच्ची थी। हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गडा दिए और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्पड निकल आया। फिर तो उसका साहस बढा। इसने दौड-दौडकर दीवार पर चोटें की और हर चोट में थोडी-थोडी मिट्टी गिराने लगा।
उसी समय काँजीहौंस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने निकला। हीरा का उजापन देखकर उसने उसे कई डण्डे रसीद किए और मोटी-सी रस्सी से बाँध दिया।
मोती ने पडे-पडे कहा- आखिर मार खाई, क्या मिला?
'अपने बूते-भर जोर तो मार दिया।
'ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बन्धन में पड गए।
'जोर तो मारता ही जाऊँगा, चाहे कितने ही बन्धन पडते जाएँ।
'जान से हाथ धोना पडेगा।
'कुछ परवाह नहीं। यों भी मरना ही है। सोचो, दीवार खुद जाती तो कितनी जानें बच जातीं। इतने भाई यहाँ बन्द हैं। किसी के देह में जान नहीं है। दो-चार दिन और यही हाल रहा, तो सब मर जाएँगे।
'हाँ, यह बात तो है। अच्छा, तो ला, फिर मैं भी जोर लगाता हूँ।
मोती ने भी दीवार में उसी जगह सींग मारा। थोडी-सी मिट्टी गिरी तो हिम्मत और बढी। फिर तो वह दीवार में सींग लगाकर इस तरह जोर करने लगा, मानो किसी प्रतिद्वन्द्वी से लड रहा है। आखिर कोई दो घण्टे की जोर-आजमाई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गई। उसने दूनी शक्ति से दूसरा धक्का मारा, तो आधी दीवार गिर पडी।
दीवार का गिरना था कि अधमरे-से पडे हुए सभी जानवर चेत उठे। तीनों घोडियाँ सरपट भाग निकलीं। फिर बकरियाँ निकलीं। इसके बाद भैसें भी खिसक गईं, पर गधे अभी तक ज्यों-के-त्यों खडे थे।
हीरा ने पूछा- तुम दोनों क्यों नहीं भाग जाते?
एक गधे ने कहा- जो कहीं फिर पकड लिए जाएँ?
'तो क्या हरज है। अभी तो भागने का अवसर है।
'हमें तो डर लगता है। हम यहीं पडे रहेंगे।
आधी रात से ऊपर जा चुकी थी। दोनों गधे अभी तक खडे सोच रहे थे कि भागें या न भागें। मोती अपने मित्र की रस्सी तोडने में लगा हुआ था। जब वह हार गया, तो हीरा ने कहा- तुम जाओ, मुझे यहीं पडा रहने दो। शायद कहीं भेंट हो जाए।
मोती ने ऑंखों में ऑंसू लाकर कहा- तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो, हीरा? हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे हैं। आज तुम विपत्ति में पड गए, तो मैं तुम्हें छोडकर अलग हो जाऊँ।
हीरा ने कहा- बहुत मार पडेगी। लोग समझ जाएँगे, यह तुम्हारी शरारत है।
मोती गर्व से बोला- जिस अपराध के लिए तुम्हारे गले में बंधन पडा, उसके लिए अगर मुझ पर मार पडे, तो क्या चिन्ता! इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियों की जान बच गई। वे सब तो आर्शीवाद देंगे ।
यह कहते हुए मोती ने दोनों गधों को सीगों से मार-मारकर बाडे के बाहर निकाला और तब अपने बन्धु के पास आकर सो रहा।
भोर होते ही मुंशी और चौकीदार तथा अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची, इसके लिखने की जरूरत नहीं। बस, इतना ही काफी है कि मोती की खूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बाँध दिया।
एक सप्ताह तक दोनों मित्र बँधे पडे रहे। किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला। हाँ, एक बार पानी दिखा दिया जाता था। यही उनका आधार था। दोनों इतने दुर्बल हो गए थे कि उठा तक न जाता, ठठरियाँ निकल आई थीं।
एक दिन बाडे के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते-होते वहाँ पचास-साठ आदमी जमा हो गए। तब दोनों मित्र निकाले गए और उनकी देख-भाल होने लगी। लोग आ-आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते। ऐसे मृतक बैलों का कौन खरीददार होता?
सहसा एक दढियल आदमी, जिसकी ऑंखें लाल थीं और मुद्रा अत्यन्त कठोर, आया और दोनों मित्रों के कूल्हों में उँगली गोदकर मुंशीजी से बातें करने लगा। उसका चेहरा देखकर अन्तज्र्ञान से दोनों मित्रों के दिल काँप उठे। वह कौन है और उन्हें क्यों टटोल रहा है, इस विषय में उन्हें कोई संदेह न हुआ। दोनों ने एक दूसरे को भीत नेत्रों से देखा और सिर झुका लिया।
हीरा ने कहा- गया के घर से नाहक भागे। अब जान न बचेगी। मोती ने अश्रध्दा के भाव से उत्तर दिया-कहते हैं, भगवान सबके ऊपर दया करते हैं। उन्हें हमारे ऊपर क्यों दया नहीं आती?
भगवान के लिए हमारा मरना-जीना दोनों बराबर है। चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उसके पास तो रहेंगे। एक बार भगवान ने उस लडकी के रूप में हमें बचाया था। क्या अब न बचाएँगे?
'यह आदमी छुरी चलाएगा। देख लेना।
'तो क्या चिन्ता है? माँस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी-न-किसी काम आ जाएगी।
नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र उस दढियल के साथ चले। दोनों की बोटी-बोटी काँप रही थी। बेचारे पाँव तक न उठा सकते थे, पर भय के मारे गिरते-पडते भागे जाते थे, क्योंकि वह जरा भी चाल धीमी हो जाने पर जोर से डण्डा जमा देता था।
राह में गाय-बैलों का रेवड हरे-हरे हार में चरता नजर आया। सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल, कोई उछलता था, कोई आनन्द से बैठा पागुर करता था। कितना सुखी जीवन था इनका, पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिन्ता नहीं कि उनके दो भाई बधिक के हाथ पडे कैसे दु:खी हैं।
सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ कि यह परिचित राह है। हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था। वही खेत, वही बाग, वही गाँव मिलने लगे। प्रतिक्षण उनकी चाल तेज होने लगी। सारी थकान, सारी दुर्बलता गायब हो गई। आह! यह लो! अपना ही हार आ गया। इसी कुएँ पर हम पुर चलाने आया करते थे, यही कुऑं है।
मोती ने कहा-हमारा घर नगीच आ गया।
हीरा बोला- भगवान की दया है।
'मैं तो अब घर भागता हूँ।
'यह जाने देगा?
'इसे मार गिरता हूँ।
'नहीं-नहीं, दौडकर थान पर चलो। वहाँ से हम आगे न जाएँगे।
दोनों उन्मत होकर बछडों की भाँति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौडे। वह हमारा थान है। दोनों दौडकर अपने थान पर आए और खडे हो गए। दढियल भी पीछे-पीछे दौडा चला आता था।
झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलों को देखते ही दौडा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की ऑंखों में आनन्द के ऑंसू बहने लगे। एक झूरी का हाथ चाट रहा था।
दढियल ने जाकर बैलों की रस्सियाँ पकड लीं।
झूरी ने कहा- मेरे बैल हैं।
'तुम्हारे बैल कैसे? मैं मवेशीखाने से नीलाम लिए आता हूँ।
'मैं तो समझता हूँ चुराए लिए आते हो! चुपके से चले जाओ। मेरे बैल हैं। मैं बेचूँगा, तो बिकेंगे। किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख्तियार है?
'जाकर थाने में रपट कर दूँगा।
'मेरे बैल हैं। इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खडे है।
दढियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड ले जाने के लिए बढा। उसी वक्त मोती ने सींग चलाया। दढियल पीछे हटा। मोती ने पीछा किया। दढियल भागा।
मोती पीछे दौडा। गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रुका, पर खडा दढियल का रास्ता देख रहा था। दढियल दूर खडा धमकियाँ दे रहा था, गालियाँ निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था। और मोती विजयी शूर की भाँति उसका रास्ता रोके खडा था। गाँव के लोग यह तमाशा देखते थे और हँसते थे। जब दढियल हारकर चला गया, तो मोती अकडता हुआ लौटा।
हीरा ने कहा- मैं डर रहा था कि कहीं तुम गुस्से में आकर मार न बैठो।
'अगर वह मुझे पकडता, तो मैं बे-मारे न छोडता।
'अब न आएगा।
'आएगा तो दूर ही से खबर लूँगा। देखूँ, कैसे ले जाता है।
'जो गोली मरवा दे?
'मर जाऊँगा, पर उसके काम तो न आऊँगा।
'हमारी जान को कोई जान नहीं समझता।
'इसलिए कि हम इतने सीधे हैं।
जरा देर में नाँदों में खली, भूसा, चोकर और दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे। झूरी खडा दोनों को सहला रहा था और बीसों लडके तमाशा देख रहे थे। सारे गाँव में उछाह-सा मालूम होता था।
उसी समय मालकिन ने आकर दोनों के माथे चूम लिए।
कमलेश्वर की कहानी अदालती फैसला
अदालत में एक संगीन फ़ौजदारी मुकद्दमे के फ़ैसले का दिन। मुकद्दमा हत्या की कोशिश का था क्योंकि जिसे मारने की साजिश की गई थी वह गहरे जख्म खाकर भी अस्पताल की मुस्तैद देखभाल और इलाज की बदौलत जिन्दा बच गया था।इस मुकहमे में पाँच अभियुक्त थे। जज ने फैसला सुनाया :-अभियुक्त नं. 1 को पर्याप्त सबूत न होने के कारण बरी किया जाता है, लेकिन हालात और साक्ष्यों से जो कुछ इस अदालत के सामने आया है, उसे देखते हुए अभियुक्त नं. 1 पर जख्मी फर्द के इलाज और दवा-दारू के लिए एक लाख रुपया जुर्माना किया जाता है!अदालत के फ़ैसले के बाद अभियुक्त नं. 1 जुर्माना चुकाकर राजनीति में चला गया और एक बड़ा राजनेता बन गया।अदालत ने अभियुक्त नं. 2 का फ़ैसला सुनाया-इस अभियुक्त नं. 2 ने जख्मी फर्द पर गँड़ासे जैसे धारदार हथियार से वार किया, इसलिए इसे सात साल की बामशक्कत कैद की सजा दी जाती है।अदालत के फैसले के मुताबिक अभियुक्त नं. 2 ने सजा काटी और बाहर आकर वह पेशेवर हत्यारा बन गया।अदालत ने अभियुक्त नं. 3 की सजा सुनाई-लगता है कि जुर्म के हालात को यह शख्स बखूबी तैयार कर सकता है और उन्हें लागू करने के फर्जी सबूत भी दे सकता है, इसलिए इसे एक साल की सजा और एक हजार रुपया जुर्माना किया जाता है!अदालत के फैसले के मुताबिक अभियुक्त नं. 3 ने जुर्माना अदा किया, एक साल की सजा काटने के बाद वह सरकारी संस्थानों के निर्माणों का ठेकेदार बन गया।अदालत ने अभियुक्त नं. 4 की सजा सुनाई-5000 रु. जुर्माने के साथ इसे साक्ष्य के अभाव में बरी किया जाता है।पाँच हजार जुर्माना अदा करने के बाद अभियुक्त
नं. 4 ने किराने की दुकान खोली और वह एक जनरल स्टोर का मालिक बन गया।अदालत ने अभियुक्त नं. 5 को बेदाग बरी कर दिया।अभियुक्त नं. 5 बरी होने के बाद भी जानता था, उसका निकटतम समाज उसे बरी नहीं करेगा। वह सन्यासी बन गया।
भीष्म साहनी की कहानी फैसला
उन दिनों हीरालाल और मैं अक्सर शाम को घूमने जाया करते थे । शहर की गलियाँ लाँघकर हम शहर के बाहर खेतों की ओर निकल जाते थे । हीरालाल को बातें करने का शौक था और मुझे उसकी बातें सुनने का । वह बातें करता तो लगता जैसे ज़िंदगी बोल रही है । उसके क़िस्से-कहानियों का अपना फ़लसफ़ाना रंग होता । लगता जो कुछ क़िताबों में पढ़ा है सब ग़लत है, व्यवहार की दुनिया का रास्ता ही दूसरा है । हीरालाल मुझसे उम्र में बहुत बड़ा तो नहीं है लेकिन उसने दुनिया देखी है, बड़ा अनुभवी और पैनी नज़र का आदमी है ।उस रोज़ हम गलियाँ लाँघ चुके थे और बाग़ की लम्बी दीवार को पार कर ही रहे थे जब हीरालाल को अपने परिचय का एक आदमी मिल गया । हीरालाल उससे बग़लगीर हुआ, बड़े तपाक से उससे बतियाने लगा, मानों बहुत दिनों बाद मिल रहा हो । फिर मुझे सम्बोधन करके बोला, "आओ, मैं तुम्हारा परिचय कराऊँ.. यह शुक्ला जी हैं..."और गदगद आवाज़ में कहने लगा, "इस शहर में चिराग़ लेकर भी ढूँढ़ने जाओ तो इन-जैसा नेक आदमी तुम्हें नहीं मिलेगा ?"शुक्ला जी के चेहरे पर विनम्रतावश हल्की-सी लाली दौड़ गई । उन्होंने हाथ जोड़े और एक धीमी-सी झेंप-भरी मुस्कान उनके होंठों पर काँपने लगी ।"इतना नेकसीरत आदमी ढूँढ़े भी नहीं मिलेगा । जिस ईमानदारी से इन्होंने ज़िंदगी बिताई है मैं तुम्हें क्या बताऊँ । यह चाहते तो महल खड़े कर लेते, लाखों रुपया इकट्ठा कर लेते..."शुक्ला जी और ज़्यादा झेंपने लगे । तभी मेरी नज़र उनके कपड़ों पर गई । उनका लिबास सचमुच बहुत सादा था, सस्ते से जूते, घर का धुला पाजामा, लम्बा बंद गले का कोट और खिचड़ी मूँछें । मैं उन्हें हेड क्लर्क से ज़्यादा का
दर्ज़ा नहीं दे सकता था ।"जितनी देर उन्होंने सरकारी नौकरी की, एक पैसे के रवादार नहीं हुए । अपना हाथ साफ़ रखा । हम दोनों एक साथ ही नौकरी करने लगे थे । यह पढ़ाई के फ़ौरन ही बाद कंपीटीशन में बैठे थे और कामयाब हो गए थे और जल्दी ही मजिस्ट्रेट बनकर फ़ीरोजपुर में नियुक्त हुए थे । मैं भी उन दिनों वहीं पर था..."मैं प्रभावित होने लगा । शुक्ला जी अभी लजाते हाथ जोड़े खड़े थे और अपनी तारीफ़ सुनकर सिकुड़ते जा रहे थे । इतनी-सी बात तो मुझे भी खटकी कि साधारण कुर्ता-पाजामा पहनने वाले लोग आम तौर पर मजिस्ट्रेट या जज नहीं होते । जज होता तो कोट-पतलून होती, दो-तीन अर्दली आसपास घूमते नज़र आते । कुर्ता-पाजामा में भी कभी कोई न्यायाधीश हो सकता है?इस झेंप-विनम्रता-प्रशंसा में ही यह बात रह गई कि शुक्ला जी अब कहाँ रहते हैं, क्या रिटायर हो गए हैं या अभी भी सरकारी नौकरी करते हैं और उनका कुशल-क्षेम पूछकर हम लोग आगे बढ़ गए ।ईमानदार आदमी क्यों इतना ढीला-ढाला होता है, क्यों सकुचाता-झेंपता रहता है, यह बात कभी भी मेरी समझ में नहीं आई। शायद इसलिए कि यह दुनिया पैसे की है । जेब में पैसा हो तो आत्म-सम्मान की भावना भी आ जाती है, पर अगर जूते सस्ते हों और पाजामा घर का धुला हो तो दामन में ईमानदारी भरी रहने पर भी आदमी झेंपता-सकुचाता ही रहता है। शुक्ला जी ने धन कमाया होता, भले ही बेईमानी से कमया होता, तो उनका चेहरा दमकता, हाथ में अँगूठी दमकती,कपड़े घमघम करते, जूते चमचमाते, बात करने के ढंग से ही रोब झलकता ।ख़ैर, हम चल दिए । बाग़ की दीवार पीछे छूट गई । हमने पुल पार किया और शीघ्र ही प्रकृति के विशाल आँगन में पहुँच गए । सामने हरे-भरे खेत थे और दूर नीलिमा की झीनी चादर ओढ़े छोटी-छोटी पहाड़ियाँ खड़ी थीं । हमारी लम्बी सैर शुरू हो गई थी ।इस महौल मेम हीरालाल की बातों में अपने आप ही दार्शनिकता की पुट आ जाती है । एक प्रकार की तटस्थता, कुछ-कुछ वैराग्य-सा, मानो प्रकृति की विराट पृष्ठभूमि के आगे मानव-जीवन के व्यवहार को देख रहा हो ।थोड़ी देर तक
तो हम चुपचाप चलते रहे, फिर हीरालाल ने अपनी बाँह मेरी बाँह में डाल दी और धीमे से हँसने लगा ।"सरकारी नौकरी का उसूल ईमानदारी नहीं है, दफ़्तर की फ़ाइल है । सरकारी अफ़सर को दफ़्तर की फ़ाइल के मुताबिक चलना चाहिए ।"हीरालाल मानो अपने आप से बातें कर रहा था । वह कहता गया, "इस बात की उसे फ़िक्र नहीं होनी चाहिए कि सच क्या है और झूठ क्या है, कौन क्या कहता है । बस, यह देखना चाहिए कि फ़ाइल क्या कहती है ।""यह तुम क्या कह रहे हो ?" मुझे हीरालाल का तर्क बड़ा अटपटा लगा, "हर सरकारी अफ़सर का फ़र्ज़ है कि वह सच की जाँच करे, फ़ाइल में तो अण्ट-सण्ट भी लिखा रह सकता है ।""न, न, न, फ़ाइल का सच ही उस के लिए एकमात्र सच है । उसी के अनुसार सरकारी अफ़सर को चलना चाहिए, न एक इंच इधर, न एक इंच उधर । उसे यह जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि सच क्या है और झूठ क्या है, यह उसका काम नहीं...""बेगुनाह आदमी बेशक पिसते रहें ?"हीरालाल ने मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं दिया । इसके विपरीत मुझे इन्हीं शुक्ला जी का क़िस्सा सुनाने लगा । शायद इन्हीं के बारे में सोचते हुए उसने यह टिप्पणी की थी ।"जब यह आदमी जज होकर फ़ीरोजपुर में आया. तो मैं वहीं पर रहता था । यह उसकी पहली नौकरी थी । यह आदमी सचमुच इतना नेक, इतना मेहनती, इतना ईमानदार था कि तुम्हें क्या बताऊँ । सारा वक़्त इसे इस बात की चिन्ता लगी रहती थी कि इसके हाथ से किसी बेगुनाह को सज़ा न मिल जाए । फ़ैसला सुनाने से पहले इससे भी पूछता, उससे भी पूछता कि असलियत क्या है, दोष किसका है, गुनहगार कौन है? मुलज़िम तो मीठी नींद सो रहा होता और जज की नींद हराम हो जाती थी ।...अगर मैं भूल नहीं करता तो अपनी माँ को इसने वचन भी दिया था कि वह किसी बेगुनाह को सज़ा नहीं देगा । ऐसी ही कोई बात उसने मुझे सुनाई भी थी ।"छोटी उम्र में सभी लोग आदर्शवादी होते हैं । वह ज़माना भी आदर्शवाद का था," मैंने जोड़ा ।पर हीरालाल कहे जा रहा था, "आधी-आधी रात तक यह मिस्लें पढ़ता और मेज़ से चिपटा
रहता । उसे यही डर खाए जा रहा था कि उससे कहीं भूल न हो जाए । एक-एक केस को बड़े ध्यान से जाँचा करता था ।"फिर यों हाथ झटककर और सिर टेढ़ा करके मानो इस दुनिया में सही क्या है और ग़लत क्या है, इसका अन्दाज़ लगा पाना कभी संभव ही न हो, हीरालाल कहने लगा, "उन्हीं दिनों फ़ीरोजपुर के नज़दीक एक कस्बे में एक वारदात हो गई और केस जिल कचहरी में आया । मामूली-सा केस था । कस्बे में रात के वक़्त किसी राह-जाते मुसाफ़िर को पीट दिया गया था और उसकी टाँग तोड़ दी गई थी । पुलिस ने कुछ आदमी हिरासत में ले लिए थे और मुक़दमा इन्हीं शुक्ला जी की कचहरी में पेश हुआ था । आज भी वह सारी घटना मेरी आँखों के सामने आ गई है...अब जिन लोगों को हिरासत में ले लिया गया था उनमें इलाके का जैलदार और उसका जवान बेटा भी शामिल थे । पुलिस की रिपोर्ट थी कि जैलदार ने अपने लठैत भेजकर उस राहगीर को पिटवाया है । जैलदार ख़ुद भी पीटनेवालों में शामिल था । साथ में उसका जवान बेटा और कुछ अन्य लठैत भी थे। मामला वहाँ रफ़ा-दफ़ा हो जाता अगर उस राहगीर की टाँग न टूट गई होती । मामूली मारपीट की तो पुलिस परवाह नहीं करती लेकिन इस मामले को तो पुलिस नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती थी । ख़ैर, गवाह पेश हुए, पुलिस ने भी मामले की तहक़ीक़ात की और पत यही चला कि जैलदार ने उस आदमी को पिटवाया है, और पीटनेवाले, राहगीर को अधमरा समझकर छोड़ गए थे।"तीन महीने तक केस चलता रहा ।" हीरालाल कहने लगा, "केस में कोई उलझन, कोई पेचीदगी नहीं थी, पर हमारे शुक्ल जी को चैन कहाँ ? इधर जैलदार के हिरासत में लिए जाने पर, हालाँकि बाद में उसे जमानत पर छोड़ दिया गया था, क़स्बे-भर में तहलका-सा मच गया था । जैलदार को तो तुम जानते हो ना । जैलदार का काम मालगुज़ारी उगाहना होता है और गाँव में उसकी बड़ी हैसियत होती है । यों वह सरकारी कर्मचारी नहीं होता ।"ख़ैर ! तो जब फ़ैसला सुनाने की तारीख़ नज़दीक आई तो शुक्ला जी की नींद हराम । कहीं ग़लत आदमी को सज़ा नमिल जाए । कहीं कोई बेगुनाह मारा न जाए । उधर पुलिस तहक़ीक़ात करती रही थी, इधर शुक्ला जी ने अपनी प्राइवेट तहक़ीक़ात शुरू कर दी । इससे पूछ, उससे पूछ । जिस दिन फ़ैसला सुनाया जाना था उससे एक दिन पहले शाम को यह सज्जन उस क़स्बे में जा पहुँचे और वहाँ के तहसीलदार से जा मिले । वह उनकी पुरानी जान-पहचान का था । उन्होंने उससे भी पूछा कि भाई, बताओ भाई, अंदर की बात क्या है, तुम तो क़स्बे के अंदर रहते हो, तुमसे तो कुछ छिपा नहीं रहता है । अब जब तहसीलदार ने देखा कि ज़िला-कचहरी का जज चलकर उसके घर आया है, और जज का बड़ा रुतबा होता है, उसने अंदर की सही-सही बात शुक्ला जी को बता दी । शुक्ला जी को पता चल गया कि सारी कारस्तानी क़स्बे के थानेदार की है, कि सारी शरारत उसी की है । उसकी कोई पुरानी अदावत जैलदार के साथ थी और वह जैलदार से बदला लेना चाहता था । एक दिन कुछ लोगों को भिजवाकर एक राह-जाते मुसाफ़िर को उसने पिटवा दिया, उसकी टाँग तुड़वा दी और जैलदार और उसके ब्टे को हिरासत मेम ले लिया । फिर एक के बाद एक झूठी गवाही । अब क़स्बे के थानेदार की मुख़ालफ़त कौन करे ? किसकी हिम्मत ? तहसीलदार ने शुक्ला जी से कहा कि मैं कुछ और तो नहीं जानता, पर इतना ज़रूर जानता हूँ कि जैलदार बेगुनाह है, उसका इस पिटाई से दूर का भी वास्ता नहीं ।"वहाँ से लौटकर शुक्ला दो-एक और जगह भी गया । जहाँ गया, वहाँ पर उसने जैलदार की तारीफ़ सुनी । जब शुक्ला जी को यक़ीन हो गया कि मुक़दमा सच॔मुच झूठा है तो उसने घर लौटकर अपना पहला फ़ैसला फ़ौरन बदल दिया और दूसरे दिन अदालत में अपना नया फ़ैसला सुना दिया और जैलदार को बिना शर्त रिहा कर दिया ।"उसी दिन वह मुझे क्लब में मिला। वह सचमुच बड़ा ख़ुश था। उसे बहुत दिन बाद चैन नसीब हुआ था। बार-बार भगवान का शुक्र कर रहा था कि वह अन्याय करते-करते बच गया, वरना उससे बहुत बड़ा पाप होने जा रहा था । 'मुझसे बहुत बड़ी भूल हो रही थी । यह तो अचानक ही मुझे सूझ गया और मैं तहसीलदार से मिलने चला गया । वरना मैंने तो अपना फ़ैसला लिख भी डाला था, उसने कहा ।"हीरालाल की बात सुनकर मैं सचमुच प्रभावित हुआ । अब मेरी नज़रों में शुक्ला सस्ते जूतों और मैलों कपड़ों में एक ईमानदार इंसान ही नहीं था बल्कि एक गुर्देवाला, ज़िंदादिल और जीवटवाला व्यक्ति था। उसे बाग़ की दीवार के पास खड़ा देखकर जो अनुकंपा-सी मेरे दिल में उठी थी वह जाती रही और मेरा दिल उसके प्रति श्रद्धा से भर उठा । हमें सचमुच ऐसे ही लोगों की ज़रूरत है जो मामले की तह तक जाएँ और निर्दोष को आँच तक न आने दें ।खेतों की मेड़ों के साथ-साथ चलते हम बहुत दूर निकल आए थे । वास्तव में उस सफ़ेद बुत तक जा पहुँचे थे जहाँ से हम अक्सर दूसरे रास्ते से मुड़ने लगते ।"फिर जानते हो क्या हुआ ?" हीरालाल ने बड़ी आत्मीयता से कहा ।"कुछ भी हुआ हो हीरालाल, मेरे लिए इतना ही काफ़ी है कि यह आदमी जीवटवाला और ईमानदार है । अपने उसूल का पक्का रहा ।""सुनो, सुनो, एक उसूल जमीर का होता है तो दूसरा फ़ाइल का ।" हीरालाल ने दानिशमंदों की तरह सिर हिलाया और बोला, "आगे सुनो... फ़ैसला सुनाने की देर थी कि थानेदार तो तड़प उठा । उसे तो जैसे साँप ने डस लिया हो । चला था जैलदार को नीचा दिखाने, उल्टा सारे क़स्बे में लोग उसकी लानत-मलामत करने लगे । चारों ओर थू-थू होने लगी । उसे तो उल्टे लेने-के-देने पड़ गए थे ।"पर वह भी पक्का घाघ था । उसने आव देखा न ताव, सीधा डिप्टी-कमिश्नर के पास जा पहुँचा । जहाँ डिप्टी-कमिश्नर ज़िले का हाकिम होता है, वहाँ थानेदार अपने क़स्बे का हाकिम होता है । डिप्टी-कमिश्नर से मिलते ही उसने हाथ बाँध लिए, कि हुज़ूर मेरी इस इलाके से तबदीली कर दी जाए । डिप्टी-कमिश्नर ने कारण पूछ तो बोला, हुज़ूर, इस इलाके को क़ाबू में रखना बड़ा मुश्किल काम है । यहाँ चोर-डकैत बहुत हैं, बड़े मुश्किल से काबू में रखे हुए हूँ । मगर हुज़ूर, जहाँ जिले का जज ही रिश्वत लेकर शरारती लोगों को रिहा करने लगे, वहाँ मेरी कौन सुनेगा । क़स्बे का निज़ाम चौपट हो जाएगा । और उसने अपने ढंग से सारा क़िस्सा सुनाया ।
डिप्टी-कमिश्नर सुनता रहा । उसके लिए यह पता लगाना कौनसा मुश्किल काम है कि किसी अफ़सर ने रिश्वत ली है या नहीं ली है, कब ली है और किससे ली है । थानेदार ने साथ में यह भी जोड़ दिया कि फ़ैसला सुनाने के एक दिन पहले जज साहब हमारे क़स्बे में भी तशरीफ़ लाए थे । डिप्टी-कमिश्नर ने बड़े सोच-विचारकर कहा कि अच्छी बात है, हम मिस्ल देखेंगे, तुम मुक़द्दमे की फ़ाइल मेरे पास भिजवा दो । थानेदार की बाँछें खिल गईं । वह चाहता ही यही था, उसने झट से फिर हाथ बाँध दिए, कि हुज़ूर एक और अर्ज़ है । मिस्ल पढ़ने के बाद अगर आप मुनासिब समझें तो इस मुक़दमे की हाईकोर्ट में अपील करने की इज़ाज़त दी जाए ।"आख़िर वही हुआ जिसकी उम्मीद थी । डिप्टी-कमिश्नर ने मुक़दमे की मिस्ल मँगवा ली । शुरू से आख़िर तक वह मुक़द्दमे के काग़ज़ात देख गया, सभी गवाहियाँ देख गया, एक-एक कानूनी नुक़्ता देख गया और उसने पाया कि सचमुच फ़ैसला बदला गया है । काग़ज़ों के मुताबिक़ तो जैलदार मुजरिम निकलता था । मिस्ल पढ़ने के बाद उसे थानेदार की यह माँग जायज लगी कि हाईकोर्ट में अपील दायर करने की इज़ाज़त दी जाए । चुनाचे उसने इज़ाज़त दे दी ।"फिर क्या? शक की गुंजाइश ही नहीं थी । डिप्टी कमिश्नर को भी शुक्ला की ईमानदारी पर संदेह होने लगा..."कहते-कहते हीरालाल चुप हो गया । धूप कब की ढल चुकी थी और चारों ओर शाम के अवसादपूर्ण साए उतरने लगे थे । हम देर तक चुपचाप चलते रहे । मुझे लगा मानो हीरालाल इस घटना के बारे मॆम न सोचकर किसी दूसरी ही बात के बारे में सोचने लगा है ।"ऐसे चलती है व्यवहार की दुनिया," वह कहने लगा, "मामला हाईकोर्ट में पेश हुआ और हाईकोर्ट ने ज़िला-अदालत के फ़ैसले को रद्द कर दिया । जैलदार को फिर से पकड़ लिया गया और उसे तीन साल की कड़ी क़ैद की सज़ा मिल गई । हाईकोर्ट ने अपने फ़ैसले मे शुक्ला पर लापरवाही का दोष लगाया और उसकी न्यायप्रियता पर संदेह भी प्रकट किया ।"इस एक मुक़द्दमे से ही शुक्ला का दिल टूट गया । उसका मन ऐसा खट्टा हुआ कि उसने ज़िले से
तबदीली करवाने की दरख़्वास्त दे दी और सच मानो, उस एक फ़ैसले के कारण ही वह ज़िले-भर में बदनाम भी होने लगा था। सभी कहने लगे, रिश्वत लेता है । बस, इसके बाद पाँच-छह साल तक वह उसी महकमे में घिसटता रहा, इसका प्रमोशन रुका रहा । इसीलिए कहते हैं कि सरकारी अफ़सर को फ़ाइल का दामन कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए, जो फ़ाइल कहे, वही सच है, बाक़ी सब झूठ है..."अँधेरा घिर आया था और हम अँधेरे में ही धीमे-धीमे शहर की ओर लौटने लगे थे । मैं समझ सकता हूँ कि शुक्ला के दिल पर क्या बीती होगी और वह कितना हतबुद्धि और परेशान रहा होगा । वह जो न्यायप्रियता का वचन अपनी माँ को देकर आया था ।"फिर ? फिर क्या हुआ ? जजी छॊड़कर शुक्लाजी कहाँ गए ?""अध्यापक बन गया, और क्या ? एक कालिज में दर्शनशास्त्र पढ़ाने लगा । सिद्धांतों और आदर्शों की दुनिया में ही एक ईमानदार आदमी इत्मीनान से रह सकता है । बड़ा कामयाब अध्यापक बना । ईमानदारी का दामन इसने अभी भी नहिं छोड़ा है । इसने बहुत-सी क़िताबें भी लिखी हैं । बढ़िया से बढ़िया क़िताबें लिखता है, पर व्यवहार की दुनिया से दूर, बहुत दूर..."
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