एक प्रकार का अनाज कहानी
हंस क्रिश्चियन एंडरसन की "द बकव्हीट" एक ऐसी कहानी है जो गर्व और विनम्रता के बारे में एक नैतिक सबक के रूप में काम करती है। यह कहानी का संक्षिप्त पुनर्कथन है:
एक बार की बात है, एक खेत विभिन्न अनाजों और अनाज के टुकड़ों से भरा हुआ था। एक प्रकार का अनाज घमंडी था और अन्य अनाजों की तरह झुकता नहीं था। यह अपनी श्रेष्ठता का घमंड करते हुए, लंबा और सीधा खड़ा था।
एक दिन, एक भयंकर तूफ़ान आया। अन्य अनाजों और फूलों ने प्रकृति की शक्ति का सम्मान करते हुए सिर झुका लिया। परन्तु कुट्टू सीधा खड़ा रहा, और उसने निडरता से कहा, "मैं किसी के भी सामने अपना सिर नहीं झुकाऊँगा, यहाँ तक कि सबसे शक्तिशाली तूफ़ान के सामने भी नहीं!"
तूफ़ान पूरे मैदान में भड़क उठा और अपने रास्ते में आने वाली हर चीज़ को झुकाता और हिलाता रहा। मामूली अनाज और फूल, जो नीचे झुक गए थे, तूफान के प्रकोप से बच गए। हालाँकि, अनाज, अपने गौरवपूर्ण रुख के साथ, तूफान की शक्ति से पिट गया और टूट गया।
तूफ़ान गुज़रने के बाद, एक यात्री मैदान से गुज़रा और उसने तबाही देखी। उन्होंने टिप्पणी की, "देखें कि कैसे घमंडी अनाज को पीटा और तोड़ा जाता है," जबकि जो लोग विनम्र थे वे बच गए हैं।
लेकिन कहानी यहीं समाप्त नहीं होती है। एक नई त्रासदी आ गई. गुजरती ट्रेन की चिंगारी से टूटे हुए अनाज में आग लग गई। एक बार घमंड करने वाला पौधा अब राख में तब्दील हो गया, उसका अहंकार उसके अंतिम पतन का कारण बना।
अंत में, अनाज का अभिमान और खुद से बड़ी ताकतों को स्वीकार करने से इंकार करने से उसका विनाश हुआ, जबकि जिन लोगों ने प्रकृति के प्रति विनम्रता और सम्मान दिखाया, वे टिके रहे और फलते-फूलते रहे।
कहानी का नैतिक
कुल मिलाकर, "द बकवीट" एक अनुस्मारक के रूप में कार्य करता है कि सच्ची ताकत अक्सर जीवन की चुनौतियों का सामना करने में विनम्र और अनुकूलनीय होने की क्षमता में निहित होती है।
कुल मिलाकर, "द बकवीट" एक अनुस्मारक के रूप में कार्य करता है कि सच्ची ताकत अक्सर जीवन की चुनौतियों का सामना करने में विनम्र और अनुकूलनीय होने की क्षमता में निहित होती है।
The Buckwheat Story
“The Buckwheat” by Hans Christian Andersen is a story that serves as a moral lesson about pride and humility. This is a short retelling of the story:
Once upon a time, there was a field full of various grains and a patch of buckwheat. The buckwheat was proud and did not bend like the other grains. It stood tall and upright, boasting of its own superiority.
One day, a violent storm approached. The other grains and flowers bowed their heads, respecting the power of nature. But the buckwheat remained upright, saying defiantly, “I will not bend my head before anyone, not even the mightiest storm!”
The storm raged through the field, bending and swaying everything in its path. The humble grains and flowers, which had bowed low, were spared the storm’s fury. However, the buckwheat, with its prideful stance, was beaten and broken by the storm’s power.
After the storm passed, a traveler walked by the field and noticed the devastation. “See how the proud buckwheat lies beaten and broken,” he remarked, “while those who were humble have survived.”
But the story does not end there. A new tragedy struck. The broken buckwheat was set ablaze by a spark from a passing train. The once proud plant was now reduced to ashes, its arrogance leading to its ultimate downfall.
In the end, the buckwheat’s pride and refusal to acknowledge the forces greater than itself led to its destruction, while those who showed humility and respect for nature endured and thrived.
Moral Of The Story
Overall, “The Buckwheat” serves as a reminder that true strength often lies in the ability to be humble and adaptable in the face of life’s challenges.
तीन प्रश्न
विख्यात रूसी साहित्यकार “टालस्टाय” अपनी कहानी “तीन प्रश्न” में लिखते हैं कि किसी राजा के मन में तीन प्रश्न अक्सर उठा करते थे जिनके उत्तर पाने के लिए वह अत्यंत अधीर था इसलिए उसने अपने राज्यमंत्री से परामर्श किया और अपने सभासदों की एक बैठक बुलाई। राजा ने उस सभा में जो अपने तीनों प्रश्न सबके सम्मुख रखे; वे थे —
1. सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य क्या होता है?
2. परामर्श के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति कौन होता है?
3. किसी भी निश्चित कार्य को करने का महत्त्वपूर्ण समय कौन सा होता है?
कोई भी राजा के प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर न दे पाया लेकिन उस सभा में राजा को एक ऐसे संन्यासी के बारे में पता चला जो सुदूर जंगल में एक कुटिया में रहते थे और सबकी जिज्ञासा का समाधान करने में समर्थ थे। राजा भी साधारण वेष में अपने कुछ सैनिकों एवं गुप्तचरों को साथ लेकर चल दिया उस संन्यासी के दर्शनों के लिए। दिल में एक ही आस थी कि अब उसे अपने प्रश्नों के उत्तर अवश्य ही मिल जायेंगे। जब वे सब सन्यासी की कुटिया के समीप पहुंचे तो राजा ने अपने सभी सैनकों एवं गुप्तचरों को कुटिया से दूर रहने का आदेश दिया और स्वयं अकेले ही आगे बढ़ने लगा।
राजा ने देखा कि अपनी कुटिया के समीप ही सन्यासी खेत में कुदाल चला रहे हैं। कुछ ही क्षणों में उनकी दृष्टि राजा पर पड़ी। कुदाल चलाते-चलाते ही उन्होंने राजा से उसके आने का कारण पूछा और राजा ने भी बड़े आदर से अपने वही तीनों प्रश्न संन्यासी को निवेदित कर दिए। राजा अपने प्रश्नों के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा लेकिन यह क्या? साधु ने तो उत्तर देने की बजाय राजा को उसकी कुदाल लेने का संकेत कर डाला और राजा भी कुदाल लेकर खेत जोतने लगा। आख़िरकार राजा को अपने प्रश्नों के उत्तर भी तो चाहिए थे।
राजा के खेत जोतते-जोतते संध्या हो गयी। इतने में ही एक घायल व्यक्ति जो खून से लथपथ था और जिसके पेट से खून की धार बह रही थी, उस संन्यासी की शरण लेने आया। अब संन्यासी एवं राजा दोनों ने मिलकर उस घायल की मरहम पट्टी की। दर्द से कुछ राहत मिली तो घायल सो गया। प्रातः जब वह घायल आगंतुक राजा से क्षमायाचना करने लगा तो राजा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। आगन्तुक राजा की स्थिति देख तत्काल अपना परिचय देते हुए बोला – “कल तक आपको मैं अपना घोर शत्रु मानता था क्योंकि आपने मेरे भाई को फाँसी की सज़ा दी थी। बदले का अवसर ढूढ़ता रहता था। कल मुझे पता लग गया था कि आप साधारण वेषभूषा में इस साधु के पास आये हैं। आपको मारने के उद्देश्य से मैं यहाँ आया था और एक झाड़ी के पीछे छिपकर बैठा था लेकिन आपके गुप्तचर मुझे पहचान गये और घातक हथियारों से मुझे चोट पहुँचाई लेकिन आपने अपना शत्रु होने के बावजूद भी मेरे प्राणों की रक्षा की। परिणामतः मेरे मन का द्वेष समाप्त हो गया है। अब मैं आपके चरणों का सेवक बन गया हूँ। आप चाहे दण्ड दें अथवा मुझे क्षमादान दें, यह आपकी इच्छा।”
घायल की बात सुनकर राजा स्तब्ध रह गया और मन ही मन इस अप्रत्याशित ईश्वरीय सहयोग के लिए के लये प्रभु का धन्यवाद करने लगा। संन्यासी मुस्कुराया और राजा से कहने लगा – “राजन्, क्या अभी भी आपको अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले ?”
राजा कुछ दुविधा में दिखाई दे रहा था इसलिए संन्यासी ने ही बात आगे बढ़ाई – आपके पहले प्रश्न का उत्तर है — सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य वही होता है जो हमारे सामने होता है; जैसे आपने मुझे खेत जोतने में सहयोग दिया। यदि आप मुझे सहानुभूति न दिखाते तो आपके जीवन की रक्षा न हो पाती।
आपका दूसरा प्रश्न था कि परामर्श के लिए कौन महत्त्वपूर्ण होता है जिसका उत्तर आपको स्वयं ही मिल चुका है कि जो व्यक्ति हमारे पास उपस्थित होता है, उसी से परामर्श मायने रखता है। जैसे उस घायल व्यक्ति को सहायता की आवश्यकता थी जिसके प्राण आपने बचाये। इस तरह आपका शत्रु भी आपका मित्र बन गया।
तीसरे प्रश्न का उत्तर यही है कि किसी भी निश्चित कार्य को करने का महत्त्वपूर्ण समय होता है “अभी”।
शिक्षा:-
मित्रों, महान् रूसी साहित्यकार टालस्टाय की यह कहानी हमें सावधान करती है कि वर्तमान के महत्त्व को कभी भी नहीं भूलना चाहिए। भविष्य की चिंता में वर्तमान यदि बिगड़ गया तो हम हाथ ही मलते रह जायेंगे। प्रस्तुत कार्य को मनोयोग से करना अथवा समय का सदुपयोग ही न केवल उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं की नींव होता है अपितु यही सर्वांगीण प्रगति का मूलमंत्र भी है..!!
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