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हेनी पेनी कहानी



एक बार की बात है, हेनी पेनी नाम की एक मुर्गी थी जो अपने आँगन में मकई चुनने में व्यस्त थी, तभी अचानक एक बलूत का फल गिर गया और उसके ठीक सिर पर जा लगा।


"भगवान की मुझ पर कृपा है!" उसने कहा, “आसमान गिर रहा है!” मुझे जाकर राजा को बताना होगा।”


रास्ते में हेनी पेनी की मुलाकात कॉकी लॉकी से हुई। "तुम कहाँ जा रहे हो, हेनी पेनी?" उसने पूछा।


"ओह, कॉकी लॉकी, आसमान गिर रहा है, और मैं राजा को बताने जा रहा हूँ!" उसने जवाब दिया।


कॉकी लॉकी ने कहा, "मैं तुम्हारे साथ आऊंगा।"


जैसे-जैसे वे आगे बढ़े, उनकी मुलाकात डकी लकी से हुई। "आप कहाँ जा रहे हैं, हेनी पेनी और कॉकी लॉकी?" डकी लकी ने पूछा।


“आसमान गिर रहा है, और हम राजा को बताने जा रहे हैं,” उन्होंने उत्तर दिया।


"मैं तुम्हारे साथ आऊंगा," डकी लकी ने कहा।


और इसलिए, वे सभी साथ-साथ चलते रहे जब तक कि उनकी मुलाकात गूसी लूसी और टर्की लर्की से नहीं हुई, और हर कोई खतरनाक अभियान में शामिल हो गया।


आख़िरकार, उनकी मुलाक़ात फ़ॉक्सी लोक्सी से हुई, जो धूर्त और चालाक था। "आप कहां जा रहे हैं?" फॉक्सी लॉक्सी से पूछा।


"आसमान गिर रहा है, और हम राजा को बताने जा रहे हैं," उन्होंने रोते हुए कहा।


जब उन्होंने भोलेपन से अपनी खोज साझा की, तो फॉक्सी वोक्सी ने उन्हें राजा के महल तक 'शॉर्टकट' पर ले जाने की पेशकश की।


फॉक्सी लॉक्सी ने कहा, "मैं राजा के महल तक जाने का एक शॉर्टकट जानता हूं।" "मेरे पीछे आओ।"


यह 'शॉर्टकट' फॉक्सी वोक्सी की मांद का प्रवेश द्वार साबित हुआ - जमीन में एक अंधेरा, संकीर्ण छेद। एक-एक करके, उन्होंने फॉक्सी वोक्सी का छेद में पीछा किया। दुख की बात है, जैसे ही प्रत्येक ने अंधेरे में प्रवेश किया, फॉक्सी वोक्सी ने झपट्टा मारा, जिससे उनकी यात्रा एक तेज और गंभीर "ह्रम्फ!" के साथ समाप्त हो गई।


लेकिन सबसे बाद में प्रवेश करने वाले हेनी पेनी ने परिचित कौवे की आवाज सुनी और अचानक समय का एहसास हुआ। यह सोचते हुए कि सुबह हो गई है और अंडे देने का समय हो गया है, वह जल्दी से पीछे मुड़ी और अपने घोंसले की ओर भाग गई, और फॉक्सी वोक्सी के जाल से बाल-बाल बच गई। और इसलिए, हेनी पेनी बच गई लेकिन राजा को कभी यह बताने का मौका नहीं मिला कि आसमान गिर रहा था।


कहानी का नैतिक

"हेनी पेनी" (जिसे "चिकन लिटिल" के नाम से भी जाना जाता है) का नैतिक सिद्धांत यह है कि जो कुछ भी आप सुनते हैं उस पर पहले पुष्टि किए बिना विश्वास न करें। यह आलोचनात्मक सोच के महत्व और गलत सूचना फैलाने के खतरों के बारे में सिखाता है।


Henny Penny Story

Once upon a time, there was a chicken named Henny Penny who was busily picking corn in the yard when suddenly, an acorn fell and bonked her right on the head


“Goodness gracious me!” she exclaimed, “the sky is falling! I must go and tell the king.”


On her way, Henny Penny met Cocky Locky. “Where are you going, Henny Penny?” he asked.


“Oh, Cocky Locky, the sky is falling, and I’m going to tell the king!” she replied.


“I’ll come with you,” said Cocky Locky.


As they went along, they met Ducky Lucky. “Where are you going, Henny Penny and Cocky Locky?” asked Ducky Lucky.


“The sky is falling, and we’re going to tell the king,” they answered.


“I’ll come with you,” said Ducky Lucky.


And so, they all went along and along until they met Goosey Loosey and Turkey Lurkey, and each one joined the alarming expedition.


Finally, they met Foxy Loxy, who was sly and cunning. “Where are you going?” asked Foxy Loxy.


“The sky is falling, and we’re off to tell the king,” they cried.


After they naively shared their quest, Foxy Woxy offered to lead them on a ‘shortcut’ to the King’s palace.


“I know a shortcut to the king’s palace,” said Foxy Loxy. “Follow me.”


This ‘shortcut’ turned out to be the entrance to Foxy Woxy’s lair—a dark, narrow hole in the ground. One by one, they followed Foxy Woxy into the hole. Tragically, as each entered the darkness, Foxy Woxy would pounce, ending their journey with a swift and grim “Hrumph!”


But Henny Penny, the last to enter, heard a familiar crowing sound and suddenly realized the time. Thinking it was morning and time to lay her egg, she hastily turned back and scurried away to her nest, narrowly escaping Foxy Woxy’s trap. And so, Henny Penny survived but never did get to tell the King that the sky was falling.


Moral of the Story

The moral of “Henny Penny” (also known as “Chicken Little”) is to not believe everything you hear without verifying it first. It teaches the importance of critical thinking and the dangers of spreading misinformation.


खुशबू ऐसे फैली

“अच्छा, मेरा स्टेशन आ गया है, मैं चलता हूँ, ईश्वर ने चाहा तो फिर मुलाकात होगी।"इतना कह वो अपना बैग उठा ट्रेन के डिब्बे के दरवाजे तक पहुँच गये।


मैं अवाक् हो उनका सीट से उठना और दरवाजे की ओर जाना देख रहा था। इतने समय का साथ और उनसे बातचीत का दौर अब अंतिम पड़ाव पर था। रेलगाड़ी की रफ़्तार धीरे-धीरे कम होती गयी और वारंगल स्टेशन का प्लेटफ़ॉर्म आ गया। ट्रेन के रुकते ही उन्होंने मुझे एक बार देखा और एक मधुर मुस्कान के साथ हाथ हिला कर उतर गए। मेरी नज़र उनका पीछा करती रही  पर कुछ ही क्षण में वो मेरी आँखों से ओझल हो गए। रेलगाड़ी कुछ समय के पश्चात सीटी बजाने के बाद चलने लगी और फिर उसने गति पकड़ ली।मैं बीते हुए समय के भंवर से बाहर आया और अपने आसपास देखा... कुछ नहीं बदला था, बस वो नहीं थे, जो पिछले 9-10 घंटे से मेरे साथ यात्रा कर रहे थे। अचानक मुझे उनके बैठे हुए स्थान से भीनी खुशबू का एक झोंका आता प्रतीत हुआ। मैंने आश्चर्य से एक स्लीपर क्लास रेलगाड़ी के डब्बे में फैली खाने की गंध, टॉयलेट से आती बदबू और सहयात्रियों के पसीने की बदबू की जगह एक भीनी महक से मेरा मन प्रसन्न हो गया। 


परन्तु मेरे जहन में सवाल ये था कि इस बदबू भरे वातावरण में यह भीनी-भीनी खुशबू कैसे फैली ???


ये जानने के लिए आपको मेरे साथ दस घंटे पहले के क्षणों में जाना होगा।मैं चेन्नई में कार्यरत था और मेरा पैतृक घर भोपाल में था। अचानक घर से पिताजी का फ़ोन आया कि तुरन्त घर चले आओ, कोई अत्यंत आवश्यक कार्य है। मैं आनन फानन में रेलवे स्टेशन पहुंचा और तत्काल रिजर्वेशन की कोशिश की परन्तु गर्मी की छुट्टियाँ होने के कारणवश एक भी सीट उपलब्ध नहीं थी।


सामने प्लेटफार्म पर ग्रैंड ट्रंक एक्सप्रेस खड़ी थी और उसमें भी बैठने की जगह नहीं थी, परन्तु... मरता क्या नहीं करता, घर तो कैसे भी जाना था। बिना कुछ सोचे-समझे सामने खड़े स्लीपर क्लास के डिब्बे में  घुस गया। मैंने सोचा... इतनी भीड़ में रेलवे टी.टी. कुछ नहीं कहेगा।डिब्बे के अन्दर भी बुरा हाल था। जैसे-तैसे जगह बनाने हेतु एक बर्थ पर एक सज्जन को लेटे देखा तो उनसे याचना करते हुए बैठने के लिए जगह मांग ली। सज्जन मुस्कुराये और उठकर बैठ गए और बोले--"कोई बात नहीं, आप यहाँ बैठ सकते हैं।" मैं उन्हें धन्यवाद दे, वहीं कोने में बैठ गया।थोड़ी देर बाद ट्रेन ने स्टेशन छोड़ दिया और रफ़्तार पकड़ ली। कुछ मिनटों में जैसे सभी लोग व्यवस्थित हो गए और सभी को बैठने का स्थान मिल गया, और लोग अपने साथ लाया हुआ खाना खोल कर खाने लगे। पूरे डिब्बे में भोजन की महक भर गयी। मैंने अपने सहयात्री को देखा और सोचा... बातचीत का सिलसिला शुरू किया जाए। मैंने कहा-- "मेरा नाम आलोक है और मैं  इसरो में वैज्ञानिक हूँ। आज़ जरुरी काम से अचानक मुझे घर जाना था इसलिए स्लीपर क्लास में चढ़ गया, वरना मैं ए.सी. से कम में यात्रा नहीं करता।"


वो मुस्कुराये और बोले-- "वाह ! तो मेरे साथ एक वैज्ञानिक यात्रा कर रहे हैं। मेरा नाम जगमोहन राव है। मैं वारंगल जा रहा हूँ। उसी के पास एक गाँव में मेरा घर है। मैं अक्सर शनिवार को घर जाता हूँ।"


इतना कह उन्होंने अपना बैग खोला और उसमें से एक डिब्बा निकाला। वो बोले--“ये मेरे घर का खाना है, आप लेना पसंद करेंगे ?”मैंने संकोचवश मना कर दिया और अपने बैग से सैंडविच निकाल कर खाने लगा।


जगमोहन राव ! ... ये नाम कुछ सुना-सुना और जाना-पहचाना सा लग रहा था, परन्तु इस समय याद नहीं आ रहा था।


कुछ देर बाद सभी लोगों ने खाना खा लिया और जैसे तैसे सोने की कोशिश करने लगे। हमारी बर्थ  के सामने एक परिवार बैठा था। जिसमें एक पिता, माता और दो बड़े बच्चे थे । उन लोगों ने भी खाना खा कर बिस्तर लगा लिए और सोने लगे। मैं बर्थ के पैताने में उकडू बैठ कर अपने मोबाइल में गेम खेलने लगा।


रेलगाड़ी तेज़ रफ़्तार से चल रही थी। अचानक मैंने देखा कि सामने वाली बर्थ पर 55-57 साल के जो सज्जन लेटे थे, वो अपनी बर्थ पर तड़पने लगे और उनके मुंह से झाग निकलने  लगा। उनका परिवार भी घबरा कर उठ गया और उन्हें पानी पिलाने लगा, परन्तु वो कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थे।मैंने चिल्ला कर कहा --"अरे ! कोई डॉक्टर को बुलाओ, इमरजेंसी है।"रात में स्लीपर क्लास के डिब्बे में डॉक्टर कहाँ से मिलता??? उनके परिवार के लोग उन्हें असहाय अवस्था में देख रोने लगे।तभी मेरे साथ वाले जगमोहन राव नींद से जाग गए। उन्होंने मुझसे पूछा -- "क्या हुआ ?"मैंने उन्हें सब बताया। मेरी बात सुनते ही उन्होंने लपक के अपने बर्थ के नीचे से अपना सूटकेस निकाला और खोलने लगे। सूटकेस खुलते ही मैंने देखा उन्होंने स्टेथेस्कोप निकाला और सामने वाले सज्जन के सीने पर रख कर धड़कने सुनने लगे। एक मिनट बाद उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखने लगीं। उन्होंने कुछ नहीं कहा और सूटकेस में से एक इंजेक्शन निकाला और सज्जन के सीने में लगा दिया और उनका सीना दबा-दबा कर, मुंह पर अपना रूमाल लगा कर अपने मुंह से सांस देने लगे। कुछ मिनट तक सी.पी.आर. देने के बाद मैंने देखा कि रोगी सहयात्री का तड़फना कम हो गया।


जगमोहन राव जी ने अपने सूटकेस में से कुछ और गोलियां निकालीं और परिवार के बेटे से बोले--“बेटा !, ये बात सुनकर घबराना नहीं।आपके पापा को मेसिव हृदयाघात आया था, पहले उनकी जान को ख़तरा था परन्तु मैंने इंजेक्शन दे दिया है और ये दवाइयां उन्हें दे देना।”


उनका बेटा आश्चर्य से बोला--“पर आप कौन हो ?"वो बोले-- “मैं एक डॉक्टर हूँ। मैं इनकी हिस्ट्री और दवाइयां लिख देता हूँ, अगले स्टेशन पर उतर कर आप लोग इन्हें अच्छे अस्पताल ले जाइएगा।" उन्होंने अपने बैग से एक लेटरपेड  निकाला और जैसे ही मैंने उस लेटरपेड का हैडिंग पढ़ा, मेरी याददाश्त वापस आ गयी।

उस पर छपा था... डॉक्टर जगमोहन राव हृदय रोग विशेषज्ञ, अपोलो अस्पताल चेन्नई। 


अब तक मुझे भी याद आ गया कि कुछ दिन पूर्व मैं जब अपने पिता को चेकअप के लिए अपोलो हस्पताल ले गया था, वहाँ मैंने डॉक्टर जगमोहन राव के बारे में सुना था। वो अस्पताल के सबसे वरिष्ठ, विशेष प्रतिभाशाली हृदय रोग विशेषज्ञ थे। उनका appointment लेने के लिए महीनों का समय लगता था। मैं आश्चर्य से उन्हें देख रहा था। एक इतना बड़ा डॉक्टर स्लीपर क्लास में यात्रा कर रहा था।और मैं एक छोटा सा तृतीय श्रेणी वैज्ञानिक घमंड से ए.सी. में चलने की बात कर रहा था और ये इतने बड़े आदमी इतने सामान्य ढंग से पेश आ रहे थे। इतने में अगला स्टेशन आ गया और वो हृदयाघात से पीड़ित बुजुर्ग एवं उनका परिवार टी.टी. एवं स्टेशन पर बुलवाई गई मेडिकल टीम की मदद से उतर गया।                


रेल वापस चलने लगी। मैंने उत्सुकतावश उनसे पूछा--“डॉक्टर साहब ! आप तो आराम से ए.सी. में यात्रा कर सकते थे फिर स्लीपर में क्यूँ ?" वो मुस्कुराये और बोले--“मैं जब छोटा था और गाँव में रहता था, तब मैंने देखा था कि रेल में कोई डॉक्टर उपलब्ध नहीं होता, खासकर दूसरे दर्जे में। इसलिए मैं जब भी घर या कहीं जाता हूँ तो स्लीपर क्लास में ही सफ़र करता हूँ... न जाने कब किसे मेरी जरुरत पड़ जाए। मैंने डॉक्टरी...मेरे जैसे लोगों की सेवा के लिए ही की थी। हमारी पढ़ाई का क्या फ़ायदा यदि हम किसी के काम न आ पाएँ ???" इसके बाद सफ़र उनसे यूं ही बात करते बीतने लगा। सुबह के चार बज गए थे। वारंगल आने वाला था। वो यूं ही मुस्कुरा कर लोगों का दर्द बाँट कर, गुमनाम तरीके से मानव सेवा कर, अपने गाँव की ओर निकल लिए और मैं उनके बैठे हुए स्थान से आती हुई खुशबू का आनंद लेते हुए अपनी बाकी यात्रा पूरी करने लगा।


अब मेरी समझ में आया था कि इतनी भीड़ के बावजूद डिब्बे में खुशबू कैसे फैली। ये उन महान व्यक्तित्व और पुण्य आत्मा की खुशब थी जिसने मेरा जीवन और मेरी सोच दोनों को महका दिया।

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