बुद्धिमान बूढ़े उल्लू की कहानी
एक घने, हरे जंगल में, एक ऊँचा, मजबूत ओक का पेड़ खड़ा था। इस पेड़ पर एक बुद्धिमान बूढ़ा उल्लू रहता था, जो अपनी विचारशीलता और बुद्धिमान सलाह के लिए पूरे जंगल में जाना जाता था।
एक दिन, जीवंत वन जानवरों का एक समूह ओक के पेड़ के नीचे इकट्ठा हुआ। एक जिज्ञासु गिलहरी, बातचीत के लिए उत्सुक, उल्लू की ओर मुड़ी और पूछा, "श्रीमान।" उल्लू, तू इतना चुपचाप क्यों बैठा है? आप हमारी बातचीत में शामिल क्यों नहीं होते?”
उल्लू ने अपनी आँखें चौड़ी करते हुए शांत, नपे-तुले स्वर में उत्तर दिया, “प्रिय दोस्तों, मौन में, मुझे सुनने और सीखने का ज्ञान मिलता है। जितना अधिक मैं सुनता हूँ, उतना अधिक मैं समझता हूँ।”
एक युवा खरगोश ने अपनी नाक हिलाते हुए कहा, "लेकिन मिस्टर उल्लू, अगर आप कभी बोलते ही नहीं तो आप सीखेंगे कैसे?"
उल्लू ने धीरे से सिर हिलाया और समझाया, “दूसरों की बात ध्यान से सुनकर, मैं बहुत सारा ज्ञान इकट्ठा करता हूँ। कम बोलने से मुझे जो मैंने सुना है उस पर सोचने और विचार करने में मदद मिलती है।”
एक बातूनी मैगपाई ने अपने पंख फड़फड़ाते हुए कहा, "लेकिन क्या आप हर समय बस सुनते हुए कभी ऊबते नहीं हैं?"
बुद्धिमान बूढ़े उल्लू ने उसकी ओर दयालु दृष्टि से देखा और कहा, “बिल्कुल नहीं, मेरे दोस्त। जंगल में हर आवाज़ के पास एक कहानी या सबक है जो मेरी समझ को समृद्ध करता है। धैर्य और शांति मुझे उनकी सराहना करने का मौका देती है।”
उल्लू की बातों पर विचार करते हुए जानवर चुप हो गए। गिलहरी ने अब विचार करते हुए कहा, “मुझे आपकी बात समझ में आ गई, मिस्टर उल्लू। शायद हम सभी को अधिक सुनने और कम बोलने का प्रयास करना चाहिए।”
बुद्धिमान बूढ़ा उल्लू मुस्कुराया और अपनी आँखें फिर से बंद कर लीं, संतुष्ट होकर कि उसका संदेश सुन लिया गया है।
कहानी की नीति
द वाइज़ ओल्ड आउल कहानी का नैतिक यह है:
"अधिक सुनने और कम बोलने से अधिक ज्ञान और समझ प्राप्त हो सकती है।"
यह कथा चौकस और विचारशील होने के महत्व पर प्रकाश डालती है, यह सुझाव देती है कि ज्ञान अक्सर बोलने के बजाय सावधानीपूर्वक सुनने और विचार करने से आता है। यह धैर्य, सावधानी और हमारे आसपास की दुनिया से सीखने की इच्छा का मूल्य सिखाता है।
The Wise Old Owl Story
In a dense, green forest, there stood a tall, sturdy oak tree. In this tree lived a wise old owl, known throughout the forest for his thoughtfulness and sage advice.
One day, a group of lively forest animals gathered beneath the oak tree. A curious squirrel, eager for conversation, turned to the owl and asked, “Mr. Owl, why do you sit so quietly? Why don’t you join our chatter?”
The owl, opening his eyes wide, replied in a calm, measured tone, “Dear friends, in silence, I find the wisdom to listen and learn. The more I hear, the more I understand.”
A young rabbit, twitching his nose, piped up, “But Mr. Owl, how do you learn if you never speak?”
The owl nodded gently and explained, “By listening carefully to others, I gather much knowledge. Speaking less helps me to think and reflect on what I have heard.”
A chatty magpie, fluttering her wings, chimed in, “But don’t you ever get bored, just listening all the time?”
The wise old owl looked at her with kind eyes and said, “Not at all, my friend. Every voice in the forest has a story or a lesson that enriches my understanding. Patience and quiet give me the space to appreciate them.”
The animals fell silent, pondering the owl’s words. The squirrel, thoughtful now, said, “I see your point, Mr. Owl. Maybe we should all try to listen more and speak less.”
The wise old owl smiled and closed his eyes again, content that his message had been heard.
Moral of The Story
The moral of The Wise Old Owl story is:
“Listening more and speaking less can lead to greater wisdom and understanding.”
This fable highlights the importance of being observant and thoughtful, suggesting that wisdom often comes from careful listening and reflection rather than from speaking. It teaches the value of patience, attentiveness, and the willingness to learn from the world around us.
आज का प्रेरक प्रसंग
सबसे बड़ा पुण्य
एक राजा बहुत बड़ा प्रजापालक था, हमेशा प्रजा के हित में प्रयत्नशील रहता था. वह इतना कर्मठ था कि अपना सुख, ऐशो- आराम सब छोड़कर सारा समय जन-कल्याण में ही लगा देता था. यहाँ तक कि जो मोक्ष का साधन है अर्थात भगवत-भजन, उसके लिए भी वह समय नहीं निकाल पाता था.
एक सुबह राजा वन की तरफ भ्रमण करने के लिए जा रहा था कि उसे एक देव के दर्शन हुए. राजा ने देव को प्रणाम करते हुए उनका अभिनन्दन किया और देव के हाथों में एक लम्बी-चौड़ी पुस्तक देखकर उनसे पूछा- “ महाराज, आपके हाथ में यह क्या है?”
देव बोले- “राजन! यह हमारा बहीखाता है, जिसमे सभी भजन करने वालों के नाम हैं.”
राजा ने निराशायुक्त भाव से कहा- “कृपया देखिये तो इस किताब में कहीं मेरा नाम भी है या नहीं?”
देव महाराज किताब का एक- एक पृष्ठ उलटने लगे, परन्तु राजा का नाम कहीं भी नजर नहीं आया.
राजा ने देव को चिंतित देखकर कहा- “महाराज ! आप चिंतित ना हों , आपके ढूंढने में कोई भी कमी नहीं है. वास्तव में ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भजन-कीर्तन के लिए समय नहीं निकाल पाता, और इसीलिए मेरा नाम यहाँ नहीं है.”
उस दिन राजा के मन में आत्म- ग्लानि सी उत्पन्न हुई लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इसे नजर-अंदाज कर दिया और पुनः परोपकार की भावना लिए दूसरों की सेवा करने में लग गए.
कुछ दिन बाद राजा फिर सुबह वन की तरफ टहलने के लिए निकले तो उन्हें वही देव महाराज के दर्शन हुए, इस बार भी उनके हाथ में एक पुस्तक थी. इस पुस्तक के रंग और आकार में बहुत भेद था, और यह पहली वाली से काफी छोटी भी थी.
राजा ने फिर उन्हें प्रणाम करते हुए पूछा- “महाराज ! आज कौन सा बहीखाता आपने हाथों में लिया हुआ है?”
देव ने कहा- “राजन! आज के बहीखाते में उन लोगों का नाम लिखा है जो ईश्वर को सबसे अधिक प्रिय हैं !”
राजा ने कहा- “कितने भाग्यशाली होंगे वे लोग ? निश्चित ही वे दिन रात भगवत-भजन में लीन रहते होंगे !! क्या इस पुस्तक में कोई मेरे राज्य का भी नागरिक है ? ”
देव महाराज ने बहीखाता खोला, और ये क्या , पहले पन्ने पर पहला नाम राजा का ही था.
राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा- “महाराज, मेरा नाम इसमें कैसे लिखा हुआ है, मैं तो मंदिर भी कभी-कभार ही जाता हूँ ?
देव ने कहा- “राजन! इसमें आश्चर्य की क्या बात है? जो लोग निष्काम होकर संसार की सेवा करते हैं, जो लोग संसार के उपकार में अपना जीवन अर्पण करते हैं. जो लोग मुक्ति का लोभ भी त्यागकर प्रभु के निर्बल संतानो की सेवा-गौसेवा गौरक्षण की सहायता में अपना योगदान देते हैं उन त्यागी महापुरुषों का भजन स्वयं ईश्वर करता है. ऐ राजन! तू मत पछता कि तू पूजा-पाठ नहीं करता, जीव सेवा, गौसेवा, लोगों की सेवा कर तू असल में भगवान की ही पूजा करता है. परोपकार और निःस्वार्थ लोकसेवा किसी भी उपासना से बढ़कर हैं.
देव ने वेदों का उदाहरण देते हुए कहा- “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छनं समाः एवान्त्वाप नान्यतोअस्ति व कर्म लिप्यते नरे..”
अर्थात ‘कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की ईच्छा करो तो कर्मबंधन में लिप्त हो जाओगे.’ राजन! भगवान दीनदयालु हैं. उन्हें खुशामद नहीं भाती बल्कि आचरण भाता है.. सच्ची भक्ति तो यही है कि परोपकार करो. गौसेवा साधु ब्राह्मणों, दीन-दुखियों का हित-साधन करो. अनाथ, विधवा, किसान व निर्धन आज अत्याचारियों से सताए जाते हैं इनकी यथाशक्ति सहायता और सेवा करो और यही परम भक्ति है..”
राजा को आज देव के माध्यम से बहुत बड़ा ज्ञान मिल चुका था और अब राजा भी समझ गया कि परोपकार से बड़ा कुछ भी नहीं और जो परोपकार करते हैं वही भगवान के सबसे प्रिय होते हैं.
*शिक्षा:-*
जो व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से गौसेवा दिन दुखियों की सेवा करने के लिए आगे आते हैं, परमात्मा हर समय उनके कल्याण के लिए यत्न करता है. हमारे पूर्वजों ने कहा भी है- “परोपकाराय पुण्याय भवति” अर्थात दूसरों के लिए जीना, दूसरों की सेवा को ही पूजा समझकर कर्म करना, परोपकार के लिए अपने जीवन को सार्थक बनाना ही सबसे बड़ा पुण्य है. और जब आप भी ऐसा करेंगे तो स्वतः ही आप वह ईश्वर के प्रिय भक्तों में शामिल हो जाएंगे.


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