अंधे आदमी और हाथी
एक बार की बात है, एक दूर के गाँव में छह अंधे आदमी रहते थे जिन्होंने सुना कि एक अजीब प्राणी, जिसे हाथी कहा जाता है, शहर में लाया गया था। उनमें से किसी को भी इसके आकार-प्रकार का ज्ञान नहीं था।
जिज्ञासावश उन्होंने कहा, "हमें इसका निरीक्षण करना चाहिए और स्पर्श करके जानना चाहिए, जिसमें हम सक्षम हैं।" इसलिए, उन्होंने इसकी खोज की, और जब उन्हें यह मिल गया, तो वे इसके बारे में टटोलने लगे।
पहला व्यक्ति, जिसका हाथ धड़ पर पड़ा, बोला, "यह प्राणी एक मोटे साँप जैसा है।"
दूसरे को, जिसका हाथ उसके कान तक गया, वह एक प्रकार का पंखा-सा लगा। “हाथी एक पंखे की तरह है,” उन्होंने कहा।
एक अन्य व्यक्ति, जिसका हाथ उसके पैर पर था, ने कहा, "हाथी एक पेड़ के तने जैसा एक खंभा है।"
उस अंधे आदमी ने, जिसने उसके किनारे पर अपना हाथ रखा था, कहा, “हाथी एक दीवार है।”
एक अन्य व्यक्ति जिसने इसकी पूँछ महसूस की, उसने इसे रस्सी के रूप में वर्णित किया। "हाथी एक रस्सी की तरह है," उन्होंने घोषणा की।
अंत में, दूसरे ने उसके दाँत को महसूस करते हुए कहा, "हाथी वह है जो कठोर, चिकना और भाले की तरह होता है।"
इस तरह, उन्होंने चर्चा की कि हाथी कैसा होता है, प्रत्येक ने अपनी-अपनी धारणा पर जोर दिया। वे बहस करने लगे, अपने विचारों के समर्थन में जोर-जोर से चिल्लाने लगे। एक बुद्धिमान व्यक्ति वहां से गुजर रहा था और उसने हंगामा सुना। उसने रुककर उनसे पूछा, “क्या बात है?”
उन्होंने उससे कहा, "हम इस बात पर सहमत नहीं हो सकते कि हाथी कैसा होता है।" उनमें से प्रत्येक ने बताया कि वह हाथी को कैसा समझता है। बुद्धिमान व्यक्ति ने शांति से समझाया, “आप सभी सही हैं। आपमें से हर कोई इसे अलग-अलग बता रहा है, इसका कारण यह है कि आपमें से हर किसी ने हाथी के अलग-अलग हिस्से को छुआ है। तो, वास्तव में, हाथी में वे सभी विशेषताएं हैं जिनका आपने उल्लेख किया है।
कहानी की नीति
अलग-अलग दृष्टिकोणों में से प्रत्येक में सच्चाई का एक हिस्सा हो सकता है, और केवल साझा समझ के माध्यम से ही पूरी तस्वीर को महसूस किया जा सकता है।
यह कहानी हमें सिखाती है कि कोई जो कहता है उसमें कुछ सच्चाई हो सकती है। अक्सर हम वास्तविकता के बारे में आंशिक दृष्टिकोण रखते हैं। यह हमें विभिन्न दृष्टिकोणों का सम्मान करने और सुनने की याद दिलाता है। अंधों के तर्क से बचा जा सकता था यदि वे एक-दूसरे से बात करते और सुनते, पूर्ण सत्य को समझने के लिए अपने अनुभवों को जोड़ते।
The Blind Men and the Elephant
The Blind Mind and the Elephant audio story
Once upon a time, in a distant village, there lived six blind men who heard that a strange creature, called an elephant, had been brought to town. None of them were aware of its shape and form.
Out of curiosity, they said, “We must inspect and know it by touch, of which we are capable.” So, they sought it out, and when they found it, they groped about it.
The first person, whose hand landed on the trunk, said, “This being is like a thick snake.”
For another one, whose hand reached its ear, it seemed like a kind of fan. “An elephant is like a fan,” he said.
As for another person, whose hands were upon its leg, said, “The elephant is a pillar like a tree-trunk.”
The blind man who placed his hand upon its side said, “Elephant is a wall.”
Another who felt its tail, described it as a rope. “The elephant is like a rope,” he declared.
Lastly, another felt its tusk, stating, “The elephant is that which is hard, smooth and like a spear.”
In this way, they discussed what the elephant was like, each insisting on his own perception. They began to argue, shouting loudly to support their own views. A wise man was passing by and heard the commotion. He stopped and asked them, “What is the matter?”
They told him, “We cannot agree on what the elephant is like.” Each one of them told what he thought the elephant was like. The wise man calmly explained, “All of you are right. The reason every one of you is telling it differently is because each one of you touched a different part of the elephant. So, actually, the elephant has all the features you mentioned.”
Moral of the Story
Different perspectives can each hold a part of the truth, and only through shared understanding can the full picture be realized.
This story teaches us that there may be some truth to what someone says. Often we have a partial view of reality. It reminds us to respect and listen to different perspectives. The blind men’s argument could have been avoided if they had talked and listened to each other, combining their experiences to understand the full truth.
आज की कहानी
माता सीता का चंडी रूप
भगवान श्रीराम राजसभा में विराज रहे थे उसी समय विभीषण वहां पहुंचे। वे बहुत भयभीत और हड़बड़ी में लग रहे थे। सभा में प्रवेश करते ही वे कहने लगे- हे राम! मुझे बचाइए, कुंभकर्ण का बेटा मूलकासुर आफत ढा रहा है। अब लगता है, न लंका बचेगी और न मेरा राजपाट।
भगवान श्रीराम द्वारा ढांढस बंधाए जाने और पूरी बात बताए जाने पर विभीषण ने बताया कि कुंभकर्ण का एक बेटा मूल नक्षत्र में पैदा हुआ था इसलिए उस का नाम मूलकासुर रखा गया। इसे अशुभ जान कुंभकर्ण ने जंगल में फिंकवा दिया था। जंगल में मधुमक्खियों ने मूलकासुर को पाल लिया।
मूलकासुर जब बड़ा हुआ तो उसने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया। अब उनके दिए वर और बल के घमंड में भयानक उत्पात मचा रखा है। जब जंगल में उसे पता चला कि आपने उसके खानदान का सफाया कर लंका जीत ली और राजपाट मुझे सौंप दिया है, तो वह क्रोधित है।
भगवन्, आपने जिस दिन मुझे राजपाट सौंपा उसके कुछ दिन बाद ही उसने पातालवासियों के साथ लंका पहुंचकर मुझ पर धावा बोल दिया। मैंने 6 महीने तक मुकाबला किया, पर ब्रह्माजी के वरदान ने उसे इतना ताकतवर बना दिया है कि मुझे भागना पड़ा तथा अपने बेटे, मंत्रियों तथा स्त्री के साथ किसी प्रकार सुरंग के जरिए भागकर यहां पहुंचा हूं।
उसने कहा कि 'पहले धोखेबाज भेदिया विभीषण को मारूंगा फिर पिता की हत्या करने वाले राम को भी मार डालूंगा। वह आपके पास भी आता ही होगा। समय कम है, लंका और अयोध्या दोनों खतरे में हैं। जो उचित समझते हों तुरंत कीजिए।'
भक्त की पुकार सुन श्रीरामजी हनुमान तथा लक्ष्मण सहित सेना को तैयार कर पुष्पक यान पर चढ़ झट लंका की ओर चल पड़े।
मूलकासुर को श्रीरामचन्द्र के आने की बात मालूम हुई, वह भी सेना लेकर लड़ने के लिए लंका के बाहर आ डटा। भयानक युद्ध छिड़ गया। 7 दिनों तक घोर युद्ध होता रहा। मूलकासुर भगवान श्रीराम की सेना पर अकेले ही भारी पड़ रहा था।
अयोध्या से सुमंत्र आदि सभी मंत्री भी आ पहुंचे। हनुमानजी संजीवनी लाकर वानरों, भालुओं तथा मानुषी सेना को जिलाते जा रहे थे। पर सब कुछ होते हुए भी युद्ध का नतीजा उनके पक्ष में जाता नहीं दिख रहा था। भगवान भी चिंता में थे।
विभीषण ने बताया कि इस समय मूलकासुर तंत्र-साधना करने गुप्त गुफा में गया है। उसी समय ब्रह्माजी वहां आए और भगवान से कहने लगे- 'रघुनंदन! इसे तो मैंने स्त्री के हाथों मरने का वरदान दिया है। आपका प्रयास बेकार ही जाएगा।
श्रीराम, इससे संबंधित एक बात और है, उसे भी जान लेना फायदेमंद हो सकता है। जब इसके भाई-बिरादर लंका युद्ध में मारे जा चुके तो एक दिन इसने मुनियों के बीच दुखी होकर कहा, 'चंडी सीता के कारण मेरा समूचा कुल नष्ट हुआ'। इस पर एक मुनि ने नाराज होकर उसे शाप दे दिया- 'दुष्ट! तूने जिसे 'चंडी' कहा है, वही सीता तेरी जान लेगी।' मुनि का इतना कहना था कि वह उन्हें खा गया बाकी मुनि उसके डर से चुपचाप खिसक गए। तो हे राम! अब कोई दूसरा उपाय नहीं है। अब तो केवल सीता ही इसका वध कर सकती हैं। आप उन्हें यहां बुलाकर इसका वध करवाइए, इतना कहकर ब्रह्माजी चले गए।
भगवान श्रीराम ने हनुमानजी और गरूड़ को तुरंत पुष्पक विमान से सीताजी को लाने भेजा।
इधर सीता देवी-देवताओं की मनौती मनातीं, तुलसी, शिव-प्रतिमा, पीपल आदि के फेरे लगातीं, ब्राह्मणों से 'पाठ, रुद्रीय' का जप करातीं, दुर्गाजी की पूजा करतीं कि विजयी श्रीराम शीघ्र लौटें। तभी गरूड़ और हनुमानजी उनके पास पहुंचे।
पति के संदेश को सुनकर सीताजी तुरंत चल दीं। भगवान श्रीराम ने उन्हें मूलकासुर के बारे में सारा कुछ बताया। फिर तो भगवती सीता को गुस्सा आ गया। उनके शरीर से एक दूसरी तामसी शक्ति निकल पड़ी, उसका स्वर बड़ा भयानक था। यह छाया सीता चंडी के वेश में लंका की ओर बढ़ चलीं।
इधर श्रीराम ने वानर सेना को इशारा किया कि मूलकासुर जो तांत्रिक क्रियाएं कर रहा है उसको उसकी गुप्त गुफा में जाकर तहस-नहस करें। वानर गुफा के भीतर पहुंचकर उत्पात मचाने लगे तो मूलकासुर दांत किटकिटाता हुआ सब छोड़-छाड़कर वानर सेना के पीछे दौड़ा। हड़बड़ी में उसका मुकुट गिर पड़ा। फिर भी भागता हुआ वह युद्ध के मैदान में आ गया।
युद्ध के मैदान में छाया सीता को देखकर मूलकासुर गरजा, तू कौन? अभी भाग जा। मैं औरतों पर मर्दानगी नहीं दिखाता।
छाया सीता ने भी भीषण आवाज करते हुए कहा, 'मैं तुम्हारी मौत चंडी हूं। तूने मेरा पक्ष लेने वाले मुनियों और ब्राह्मणों को खा डाला था, अब मैं तुम्हें मारकर उसका बदला चुकाऊंगी।' इतना कहकर छाया सीता ने मूलकासुर पर 5 बाण चलाए। मूलकासुर ने भी जवाब में बाण चलाए। कुछ देर तक घोर युद्ध हुआ, पर अंत में 'चंडिकास्त्र' चलाकर छाया सीता ने मूलकासुर का सिर उड़ा दिया और
वह लंका के दरवाजे पर जा गिरा।
राक्षस हाहाकार करते हुए इधर-उधर भाग खड़े हुए। छाया सीता लौटकर सीता के शरीर में प्रवेश कर गई। मूलकासुर से दुखी लंका की जनता ने मां सीता की जय-जयकार की और विभीषण ने उन्हें धन्यवाद दिया। कुछ दिनों तक लंका में रहकर श्रीराम सीता सहित पुष्पक विमान से अयोध्या लौट आए।
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