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द हैप्पी प्रिंस लघु कहानी



एक बार की बात है, एक शानदार शहर में, हैप्पी प्रिंस की एक शानदार मूर्ति खड़ी थी। वह उत्तम सोने से मढ़ा हुआ था, उसकी आँखों में नीलमणि थी और उसकी तलवार की मूठ पर एक माणिक चमक रहा था।


प्रसन्न राजकुमार ने अपने जीवनकाल में कभी दुःख नहीं देखा था। परन्तु अब, नगर के ऊपर, उसने अपने नगर की सारी दुर्दशा और कुरूपता देखी, और उसकी नीलमणि आँखों से आँसू बहने लगे।


एक रात, एक छोटा निगल शहर के ऊपर से उड़ गया। वह मिस्र के रास्ते में था लेकिन उसने हैप्पी प्रिंस के चरणों के बीच आराम करने का फैसला किया।


"क्यों रो रही हो?" निगल चहका, एक मूर्ति को रोता देखकर आश्चर्यचकित हो गया।


राजकुमार ने उत्तर दिया, "मैं अपने लोगों की पीड़ा देखता हूं और रोने के अलावा कुछ नहीं कर सकता।" "क्या तुम मेरे दूत बनोगे और मेरी तलवार से माणिक को उस गरीब दर्जिन के पास ले जाओगे जिसका बच्चा बीमार है?"


राजकुमार की दयालुता से प्रभावित होकर, निगल सहमत हो गया। उसने माणिक लिया और दर्जिन की गोद में डाल दिया।


अगली रात, राजकुमार ने स्वैलो से अपनी एक नीलमणि आंख एक संघर्षरत नाटककार के पास ले जाने को कहा। निगल ने वैसा ही किया जैसा कहा गया था, हालाँकि वह यह जानकर दुखी हो गया कि राजकुमार अंधा हो रहा था।


तीसरी रात को, राजकुमार ने अनुरोध किया कि उसकी दूसरी आंख एक मैच लड़की को दे दी जाए जो अपना मैच हार गई थी और खाली हाथ घर जाने से डरती थी।


"लेकिन तुम अंधे हो जाओगे," स्वैलो ने विरोध किया।


“जैसा मैं कहूँ वैसा करो,” राजकुमार ने विनती की।


इसलिए, निगल ने राजकुमार की दूसरी आंख निकाल ली और उसे मैच गर्ल के पास ले गया।

अब, हैप्पी प्रिंस अंधा था, और स्वैलो ने, उसकी उदारता से प्रभावित होकर, हमेशा उसके साथ रहने की कसम खाई।


निगल ने राजकुमार को उन स्थानों के बारे में बताया जो उसने देखे थे, और राजकुमार ने अपने लोगों के सुख और दुख की कहानियाँ सुनाईं। निगल ने राजकुमार को ढकने वाली सोने की पत्ती को टुकड़े-टुकड़े करके उतार दिया और गरीबों को दे दिया।


आख़िरकार, सर्दियाँ आ गईं। निगल कमज़ोर हो गया, लेकिन वह अपने दोस्त राजकुमार के साथ रहा।


अंत में, निगल राजकुमार के चरणों में मर गया, और उसी क्षण, राजकुमार का मुख्य दिल दो टुकड़ों में टूट गया।


अगले दिन, शहरवासियों ने, अब सुस्त और अनाकर्षक मूर्ति को देखकर, इसे पिघलाने का फैसला किया। लेकिन टूटा सीसा दिल नहीं पिघला. न ही उन्हें मृत निगल मिला।


परमेश्वर ने, अपने ऊंचे स्वर्ग से, अपने स्वर्गदूतों से कहा, "मेरे लिए शहर की दो सबसे कीमती चीज़ें लाओ।"


स्वर्गदूत उसके लिए सीसा हृदय और मृत निगल लाए। भगवान मुस्कुराए और कहा, "मेरे स्वर्ग के बगीचे में, यह छोटा पक्षी हमेशा गाता रहेगा, और मेरे सोने के शहर में, खुश राजकुमार मेरी प्रशंसा करेगा।"


कहानी की नीति

ऑस्कर वाइल्ड की "द हैप्पी प्रिंस" की सीख यह है कि सच्ची ख़ुशी दूसरों के प्रति दया और करुणा के निस्वार्थ कार्यों में पाई जाती है। यह सिखाता है कि जरूरतमंद लोगों की पीड़ा को कम करने में भौतिक संपदा और सुंदरता सहानुभूति और उदारता से कम महत्वपूर्ण नहीं है‌‌



The Happy Prince Short Story


Once upon a time, in a splendid city, there stood a magnificent statue of the Happy Prince. He was gilded with fine gold, had sapphires for eyes, and a ruby glowed on his sword hilt.


The Happy Prince had never known sorrow in his lifetime. But now, high above the city, he saw all the misery and ugliness of his city, and tears flowed from his sapphire eyes.


One night, a little Swallow flew over the city. He was en route to Egypt but decided to rest between the feet of the Happy Prince.


“Why are you crying?” chirped the Swallow, surprised to see a statue cry.


“I see the suffering of my people and cannot help but weep,” the Prince replied. “Will you be my messenger and take the ruby from my sword to a poor seamstress whose child is sick?”


Touched by the Prince’s kindness, the Swallow agreed. He took the ruby and dropped it into the seamstress’s lap.


The next night, the Prince asked the Swallow to take one of his sapphire eyes to a struggling playwright. The Swallow did as asked, though he grew sadder, knowing the Prince was going blind.


On the third night, the Prince requested his other eye be given to a match girl who had lost her matches and was afraid to go home empty-handed.


“But you will be blind,” protested the Swallow.


“Do as I ask,” implored the Prince.

So, the Swallow plucked out the Prince’s other eye and took it to the match girl.


Now, the Happy Prince was blind, and the Swallow, moved by his generosity, vowed to stay with him forever.


The Swallow told the Prince of the places he had seen, and the Prince told stories of the joys and sorrows of his people. The Swallow took off the gold leaf covering the Prince, piece by piece, and gave it to the poor.


Eventually, winter came. The Swallow grew weaker, but he stayed with the Prince, his friend.


Finally, the Swallow died at the Prince’s feet, and at that moment, the Prince’s lead heart broke in two.

The next day, the townsfolk, seeing the now dull and unattractive statue, decided to melt it down. But the broken lead heart did not melt. Nor did they find the dead Swallow.

God, from His high heavens, spoke to His angels, “Bring me the two most precious things in the city.”

The angels brought Him the lead heart and the dead Swallow. God smiled and said, “In my garden of paradise, this little bird shall sing forever, and in my city of gold, the Happy Prince shall praise me.”


Moral of the Story

The moral of “The Happy Prince” by Oscar Wilde is that true happiness is found in selfless acts of kindness and compassion towards others. It teaches that material wealth and beauty are less important than empathy and generosity in alleviating the suffering of those in need‌‌


भक्त_के_वश_में_हैभगवान 

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किसी समय एक गांव में भागवत कथा का आयोजन किया गया, एक पंडित जी भागवत कथा सुनाने आए। 

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पूरे सप्ताह कथा वाचन चला। पूर्णाहुति पर दान दक्षिणा की सामग्री इक्ट्ठा कर घोड़े पर बैठकर पंडित जी रवाना होने लगे।

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उसी गांव में एक सीधा-सादा गरीब किसान भी रहता था जिसका नाम था धन्ना जाट।

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धन्ना जाट ने उनके पांव पकड़ लिए। वह बोला- पंडित जी महाराज ! आपने कहा था कि जो ठाकुर जी की सेवा करता है उसका बेड़ा पार हो जाता है।

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आप तो जा रहे है। मेरे पास न तो ठाकुर जी हैं, न ही मैं उनकी सेवा पूजा की विधि जानता हूँ। इसलिए आप मुझे ठाकुर जी देकर पधारें।

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पंडित जी ने कहा- चौधरी, तुम्हीं ले आना।

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धन्ना जाट ने कहा - मैंने तो कभी ठाकुर जी देखे ही नहीं, लाऊंगा कैसे ?

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पंडित जी को घर जाने की जल्दी थी। उन्होंने पिण्ड छुड़ाने को अपना भंग घोटने का सिलबट्टा उसे दिया और बोले- ये ठाकुर जी है। इनकी सेवा पूजा करना।

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धन्ना जाट ने कहा, महाराज में सेवा पूजा का तरीका भी नहीं जानता। आप ही बताएं।

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पंडित जी ने कहा - पहले खुद नहाना फिर ठाकुर जी को नहलाना। इन्हें भोग चढ़ाकर फिर खाना।

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इतना कहकर पंडित जी ने घोड़े के एड़ लगाई व चल दिए।

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धन्ना सीधा एवं सरल आदमी था। पंडित जी के कहे अनुसार सिलबट्टे को बतौर ठाकुर जी अपने घर में स्थापित कर दिया। दूसरे दिन स्वयं स्नान कर सिलबट्टे रूप ठाकुर जी को नहलाया।

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विधवा मां का बेटा था। खेती भी ज्यादा नहीं थी। इसलिए भोग में अपने हिस्से का बाजरी का टिक्कड़ एवं मिर्च की चटनी रख दी।

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ठाकुर जी से धन्ना ने कहा, पहले आप भोग लगाओ फिर मैं खाऊंगा।

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जब ठाकुर जी ने भोग नहीं लगाया तो बोला- पंडित जी तो धनवान थे। खीर- पूड़ी एवं मोहन भोग लगाते थे। मैं तो गरीब जाट का‌ बेटा हूं, 

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इसलिए मेरी रोटी चटनी का भोग आप कैसे लगाएंगे ? पर साफ-साफ सुन लो मेरे पास तो यही भोग है। खीर पूड़ी मेरे बस की नहीं है।

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ठाकुर जी ने भोग नहीं लगाया तो धन्ना भी सारा दिन भूखा रहा।

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इसी तरह वह रोज का एक बाजरे का ताजा टिक्कड़ एवं मिर्च की चटनी रख देता एवं भोग लगाने की अरजी करता।

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ठाकुर जी तो पसीज ही नहीं रहे थे। यह क्रम निरंतर छह दिन तक चलता रहा।

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छठे दिन धन्ना बोला, ठाकुर जी, चटनी रोटी खाते क्यों शर्माते हो ? आप कहो तो मैं आंखें मूंद लू फिर खा लो। 

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ठाकुर जी ने फिर भी भोग नहीं लगाया तो नहीं लगाया।

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धन्ना भी भूखा प्यासा था। 7वें दिन धन्ना जट बुद्धि पर उतर आया। फूट-फूट कर रोने लगा एवं कहने लगा कि सुना था आप दीन-दयालु हो, पर आप भी गरीब की कहां सुनते हो।

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मेरा रखा यह टिक्कड़ एवं चटनी आकर नहीं खाते हो तो मत खाओ। अब मुझे भी नहीं जीना है ।

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इतना कह उसने सिलबट्टा उठाया और सिर फोड़ने को तैयार हुआ ।

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अचानक सिलबट्टे से एक प्रकाश पुंज प्रकट हुआ एवं धन्ना का हाथ पकड़ कहा, देख धन्ना मैं तेरा चटनी टिक्कड़ा खा रहा हूं।

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ठाकुर जी बाजरे का टिक्कड़ एवं मिर्च की चटनी मजे से खा रहे थे।

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जब आधा टिक्कड़ खा लिया तो धन्ना बोला, क्या ठाकुर जी मेरा पूरा टिक्कड़ खा जाओगे ? मैं भी छह दिन से भूखा प्यासा हूं। आधा टिक्कड़ तो मेरे लिए भी रखो।

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ठाकुर जी ने कहा - तुम्हारी चटनी रोटी बडी मीठी लग रही है तू दूसरी खा लेना।

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धन्ना ने कहा - प्रभु ! मां मुझे एक ही रोटी देती है। यदि मैं दूसरी लूंगा तो मां भूखी रह जाएगी।

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प्रभु ने कहा-फिर ज्यादा क्यों नहीं बनाता।

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धन्ना ने कहा - खेत छोटा सा है और मैं अकेला।

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ठाकुर जी ने कहा - नौकर रख ले।

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धन्ना बोला, प्रभु, मेरे पास बैल थोड़े ही हैं मैं तो खुद जुतता हूं।

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ठाकुर जी ने कहा, और खेत जोत ले।

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धन्ना ने कहा-प्रभु, आप तो मेरी मजाक उड़ा रहे हो। नौकर रखने की हैसियत हो तो दो वक्त रोटी ही न खा लें हम मां-बेटे।

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इस पर ठाकुर जी ने कहा - चिन्ता मत कर मैं तेरी सहायता करूंगा।

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कहते है तबसे ठाकुर जी ने धन्ना का साथी बनकर उसकी सहायता करनी शुरू की।

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धन्ना के साथ खेत में कामकाज कर उसे अच्छी जमीन एवं बैलों की जोड़ी दिलवा दी।

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कुछे अर्से बाद घर में गाय भी आ गई। मकान भी पक्का बन गया। सवारी के लिए घोड़ा आ गया।

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धन्ना एक अच्छा खासा जमींदार बन गया।

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कई साल बाद पंडित जी पुनः धन्ना के गांव भागवत कथा करने आए। धन्ना भी उनके दर्शन को गया। 

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प्रणाम कर बोला, पंडित जी, आप जो ठाकुर जी देकर गए थे वे छह दिन तो भूखे प्यासे रहे एवं मुझे भी भूखा प्यासा रखा। 

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सातवें दिन उन्होंने भूख के मारे परेशान होकर मुझ गरीब की रोटी खा ही ली।

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उनकी इतनी कृपा है कि खेत में मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर काम में मदद करते है।

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अब तो घर में गाय भी है। सात दिन का घी-दूध का ‘सीधा‘ यानी बंदी का घी- दूध मैं ही भेजूंगा।

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पंडित जी ने सोचा मूर्ख आदमी है। मैं तो भांग घोटने का सिलबट्टा देकर गया था।

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गांव में पूछने पर लोगों ने बताया कि चमत्कार तो हुआ है। धन्ना अब वह गरीब नहीं रहा। जमींदार बन गया है।

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दूसरे दिन पंडित जी ने धन्ना से कहा, कल कथा सुनने आओ तो अपने साथ अपने उस साथी को ले कर आना जो तुम्हारे साथ खेत में काम करता है।

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घर आकर धन्ना ने प्रभु से निवेदन किया कि कथा में चलो तो प्रभु ने कहा, मैं नहीं चलता तुम जाओ।

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धन्ना बोला - तब क्या उन पंडित जी को आपसे मिलाने घर ले आऊँ।

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प्रभु ने कहा - बिल्कुल नहीं। मैं झूठी कथा कहने वालों से नहीं मिलता।

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जो मुझसे सच्चा प्रेम करता है और जो अपना काम मेरी पूजा समझ करता है मैं उसी के साथ रहता हूं।

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सत्य ही कहा गया है, "भगत के वश में है भगवान्"

  

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