The Seasons of Life
A long long time ago, there was a wise man who had four children. Hoping to teach his upsprings a lesson about perspective, he presented them with a unique task.
“I’d like each of you to visit the same apple tree, but during different seasons,” the elder proposed.
The apple tree was in a meadow far enough so only the son who visited the apple tree could see it.
Intrigued, the children agreed.
When winter wrapped the village in its icy grasp, the eldest son visited the tree. Returning, he said, “The tree looks bare with twisted branches.”
When spring arrived, the second child went and returned gleaming, “The tree’s bursting with young buds. It’s starting to come back to life or grow again!”
Summer saw the third child observing, “The tree is full of flowers and smells sweet.”
In the fall, the youngest son declared after his visit, “The tree is filled with lots of fruit, showing nature’s abundance”.
The wise man, gathering his children, reflected, “All of you looked at the same tree yet described it in contrasting ways, for each of you beheld a unique season.”
The children exchanged glances, their individual experiences vivid in their minds.
The elder imparted his wisdom, “In life, refrain from judging anything or anyone by a single moment. Experience the full circle of seasons to gain true understanding.”
Moral of The Story
Don’t let tough times in one season take away the happiness of others. Don’t base life on one hard period. Keep pushing through the challenges, and better days will come.
Don’t let tough times in one season take away the happiness of others. Don’t base life on one hard period. Keep pushing through the challenges, and better days will come.
जीवन की ऋतुएँ
बहुत समय पहले, एक बुद्धिमान व्यक्ति था जिसके चार बच्चे थे। अपने वंशजों को परिप्रेक्ष्य के बारे में सबक सिखाने की आशा करते हुए, उन्होंने उन्हें एक अनोखा कार्य सौंपा।
बुजुर्ग ने प्रस्ताव दिया, "मैं चाहता हूं कि आप में से प्रत्येक एक ही सेब के पेड़ का दौरा करें, लेकिन अलग-अलग मौसमों में।"
सेब का पेड़ एक घास के मैदान में काफी दूर था इसलिए केवल सेब के पेड़ के पास जाने वाला बेटा ही उसे देख सकता था।
उत्सुकतावश, बच्चे सहमत हो गए।
जब सर्दी ने गाँव को बर्फीले आगोश में लपेट लिया, तो सबसे बड़ा बेटा उस पेड़ के पास गया। लौटकर उसने कहा, “पेड़ मुड़ी हुई शाखाओं से नंगा दिखता है।”
जब वसंत आया, तो दूसरा बच्चा गया और चमकता हुआ लौटा, “पेड़ युवा कलियों के साथ फूट रहा है। यह फिर से जीवन में आना या फिर से विकसित होना शुरू हो गया है!”
समर ने तीसरे बच्चे को देखते हुए कहा, "पेड़ फूलों से भरा है और मीठी खुशबू आ रही है।"
पतझड़ में, सबसे छोटे बेटे ने अपनी यात्रा के बाद घोषणा की, "पेड़ बहुत सारे फलों से भरा हुआ है, जो प्रकृति की प्रचुरता को दर्शाता है"।
बुद्धिमान व्यक्ति ने अपने बच्चों को इकट्ठा करते हुए कहा, "आप सभी ने एक ही पेड़ को देखा, फिर भी इसका वर्णन अलग-अलग तरीकों से किया, क्योंकि आप में से प्रत्येक ने एक अनोखा मौसम देखा।"
बच्चों ने एक-दूसरे पर नज़रें डालीं, उनके व्यक्तिगत अनुभव उनके मन में ताज़ा हो गए।
बड़े ने अपना ज्ञान दिया, “जीवन में, किसी भी चीज़ या किसी को भी एक पल के लिए भी आंकने से बचना चाहिए। सच्ची समझ हासिल करने के लिए ऋतुओं के पूरे चक्र का अनुभव करें।
कहानी का नैतिक
एक सीज़न में कठिन समय को दूसरों की खुशियाँ छीनने न दें। जीवन को एक कठिन अवधि पर आधारित न करें। चुनौतियों का सामना करते रहें, और अच्छे दिन आएंगे।
दिखावा
विनोद कुमार जैसे ही दुकान में घुसे दुकान के मालिक बृजमोहन ने उन्हें आदर से बिठाया और उनके मना करने के बावजूद लड़के को चाय लेने के लिए भेज दिया..
उसके बाद बृजमोहन ने पूछा, “कहिए विनोद बाबू क्या सेवा करूँ विनोद कुमार ने कहा कि एक ऊनी शॉल या चद्दर दिखलाइए...
विनोद कुमार बृजमोहन की दुकान के पुराने कस्टमर है...इसलिए वो जानते हैं कि विनोद कुमार की पसंद हमेशा ऊँची होती है और पैसे का मुँह देखना वो नहीं जानते...सो उन्होंने एक से एक बढ़िया ऊनी शॉलों और चद्दरों का ढेर लगा दिया....
विनोद कुमार ने शॉलों और चद्दरों की क्वालिटी को देखते हुए कहा, “बृजमोहन भाई इतनी हैवी नहीं कोई हल्की सी शॉल या चद्दर दिखलाइए...
यह सुनकर बृजमोहन को विश्वास नहीं हुआ तो उन्होंने कहा, “हल्की और आप....
क्यों मज़ाक़ कर रहे हो विनोद बाबू.....भला हल्की शॉल का क्या करेंगे आप....
विनोद कुमार ने कहा, “ऐसा है बृजमोहन भाई हमारी बहन उर्मिला है ना...
उसकी सास शांतिदेवी के लिए भिजवानी है उन्होंने कई बार मुझसे कहा है कि विनोद बेटा मुझे एक अच्छी -सी गरम चद्दर ला के दे। तेरी पसंद बड़ी अच्छी होती है। पहले भी तूने एक शॉल लाकर दी थी जो बहुत गरम थी और कई साल चली थी...
अब बृजमोहन ने सामने फैली हुई शॉल और चद्दरों के ढेर को एक तरफ़ सरकाकर कुछ मीडियम क़िस्म की शॉलें खोल दी...
विनोद कुमार ने निषेधात्मक मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा कि और दिखलाओ....
बृजमोहन हैरान था पर ग्राहक की मर्ज़ी के सामने लाचार भी...
उसने सबसे हल्की शॉलों का बंडल खोला और शॉलें विनोद कुमार के सामने फैला दी.....
विनोद कुमार ने साढ़े चार सौ रुपये की एक शॉल चुन ली और उसे पैक करवाकर घर ले आए और उसी दिन शाम को उसने वो शॉल बहन की सास को भिजवा दी.शॉल पाकर शांतिदेवी बड़ी खुश हुई....
बात ये नहीं थी कि शांतिदेवी के घर में किसी चीज़ की कमी थी या उसके बेटे-बहू उसके लिए कुछ लाकर नहीं देते थे, पर वो अपने रिश्तेदारों पर भी अपना हक समझती और जताती रहती थी। विनोद पर तो वह और भी ज़्यादा हक जताती थी ; क्योंकि विनोद उसे अच्छा लगता था लेकिन विनोद की भेजी हुई शॉल वो पाँच-सात बार ही ओढ़ पाई होंगी कि एक दिन रात के वक्त उसके सीने में तेज़ दर्द हुआ और दो दिन बाद ही रात बारह साढ़े बारह बजे के आसपास वो इस संसार से सदा के लिए विदा हो गई...
उनकी अंत्येष्टि के लिए अगले दिन दोपहर बारह बजे का समय निश्चित किया गया...
सुबह-सुबह बृजमोहन अपनी दुकान खोल ही रहे थे कि विनोद कुमार वहाँ पहुँचे और कहा, “भाई उर्मिला की सास गुज़र गई है एक चद्दर दे दो....
बृजमोहन ने बड़े अफ़सोस के साथ कहा, “ओह....
अभी कुछ दिन पहले ही तो आप उनके लिए गरम शॉल लेकर गए थे कितने दिन ओढ़ पाईं बेचारी...
उसके बाद बृजमोहन ने चद्दरों का एक बंडल उठाकर खोला और उसमें से कुछ चद्दरें निकाली... विनोद कुमार ने चद्दरें देखीं तो उनका चेहरा बिगड़-सा गया और उन्होंने कहा कि बृजमोहन भाई ज़रा ढंग की चद्दरें निकालो...
कई बंडल खुलवाने के बाद विनोद कुमार ने जो चद्दर पसंद की उसकी क़ीमत थी पच्चीस सौ रुपए....
बृजमोहन ने कहा, “विनोद बाबू वैसे आपकी मर्ज़ी पर मुर्दे पर इतनी महँगी चद्दर कौन डालता है....
विनोद कुमार ने कहा-बृजमोहन जी...
“बात महँगी-सस्ती की नहीं, हैसियत की होती है उर्मिला के ससुराल वालों और उनके दूसरे रिश्तेदारों को पता तो चलना चाहिए कि उर्मिला के भाई की हैसियत क्या है और उसकी पसंद कितनी ऊँची है......
दोस्तों मुझे याद है मेरे पिताजी अक्सर एक बात कहते थे...
मुर्दे को पूजे ये दुनिया...
जिंदे की इज्ज्त कुछ भी नहीं....
मतलब-जितना अपनेपन का दिखावा या सहारा मरनेवाले इंसान या उसके परिवार से बाद मे करते है अगर जीते जी उतना सहारा बन जाए तो शायद बात कुछ और हो...
कहने को मरनेवाले को कंधा देना पुण्य मानते है लोग ...
वही कंधा या सहारा जीते जी दे दे तो बात कुछ और ही हो.
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