शिक्षाप्रद कहानियाँ भाग-46

भाइयों का सम्बंध

एक दिन संध्या के समय सरयू के तट पर तीनों भाइयों संग टहलते श्रीराम से महात्मा भरत ने कहा, "एक बात पूंछूँ भइया?"

"माता कैकई ने आपको वनवास दिलाने के लिए मंथरा के साथ मिल कर जो षड्यंत्र किया था, क्या वह राजद्रोह नहीं था..?उनके षड्यंत्र के कारण एक ओर राज्य के भावी महाराज और महारानी को चौदह वर्ष का वनवास झेलना पड़ा तो दूसरी ओर पिता महाराज की दुखद मृत्यु हुई। ऐसे षड्यंत्र के लिए सामान्य नियमों के अनुसार तो मृत्युदंड दिया जाता है, फिर आपने माता कैकई को दण्ड क्यों नहीं दिया?"

राम मुस्कुराए। बोले, "जानते हो भरत, किसी कुल में एक चरित्रवान और धर्मपरायण पुत्र जन्म ले ले तो उसका जीवन उसके असँख्य पीढ़ी के पितरों के अपराधों का प्रायश्चित कर देता है। जिस माँ ने तुम जैसे महात्मा को जन्म दिया हो उसे दण्ड कैसे दिया जा सकता है भरत?"

भरत संतुष्ट नहीं हुए। कहा, "यह तो मोह है भइया, और राजा का दण्डविधान मोह से मुक्त होता है। एक राजा की तरह उत्तर दीजिये कि आपने माता को दंड क्यों नहीं दिया, समझिए कि आपसे यह प्रश्न आपका अनुज नहीं, अयोध्या का एक सामान्य नागरिक कर रहा है।"

राम गम्भीर हो गए! कुछ क्षण के मौन के बाद कहा, "अपने सगे-सम्बन्धियों के किसी अपराध पर कोई दण्ड न देना ही इस सृष्टि का कठोरतम दण्ड है भरत ! माता कैकई ने अपनी एक भूल का बड़ा कठोर दण्ड भोगा है। वनवास के चौदह वर्षों में हम चारों भाई अपने अपने स्थान से परिस्थितियों से लड़ते रहे हैं, पर माता कैकई हर क्षण मरती रही हैं। अपनी एक भूल के कारण उन्होंने अपना पति खोया, अपने चार बेटे खोए, अपना समस्त सुख खोया, फिर भी वे उस अपराधबोध से कभी मुक्त न हो सकीं। वनवास समाप्त हो गया तो परिवार के शेष सदस्य प्रसन्न और सुखी हो गए, पर वे कभी प्रसन्न न हो सकीं। कोई राजा किसी स्त्री को इससे कठोर दंड क्या दे सकता है..? मैं तो सदैव यह सोच कर दुखी हो जाता हूँ कि मेरे कारण अनायास ही मेरी माँ को इतना कठोर दण्ड भोगना पड़ा।"

राम के नेत्रों में जल उतर आया था, और भरत आदि भाई मौन हो गए थे।राम ने फिर कहा,"और उनकी भूल को अपराध समझना ही क्यों भरत ! यदि मेरा वनवास न हुआ होता तो संसार भरत और लक्ष्मण जैसे भाइयों के अतुल्य भ्रातृप्रेम को कैसे देख पाता। मैंने तो केवल अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन मात्र किया था, पर तुम दोनों ने तो मेरे स्नेह में चौदह वर्ष का वनवास भोगा। वनवास न होता तो यह संसार सीखता कैसे कि भाइयों का सम्बन्ध होता कैसा है।" 

भरत के प्रश्न मौन हो गए थे। वे अनायास ही बड़े भाई से लिपट गए!!



भगवान हर जीव में है

संत एकनाथ बहुत परोपकारी थे। वे महान संत थे लेकिन उनके आचरण, व्यवहार और वाणी में कोई दिखावा नहीं था। वे मूलतः महाराष्ट्र से थे, परन्तु उनके नेक कामों की सुगंध पूरी दुनिया में फैली।

एक बार संत एकनाथ के मन में यह विचार आया कि प्रयाग जाकर त्रिवेणी में स्नान किया जाए और त्रिवेणी का पवित्र जल कांवड़ में भरकर रामेश्वरम में चढ़ाया जाए। उन्होंने इस बारे में अपने साथियों से चर्चा की तो सभी तैयार हो गए। एकनाथ भजन-सत्संग करते हुए प्रयाग पहुँच गए। वहाँ उन्होंने त्रिवेणी में स्नान किया और उसका पवित्र जल कांवड़ में भरकर रामेश्वरम चल दिए। एकनाथ के साथी भजन-कीर्तन करते रामेश्वर जा रहे थे। शरीर में थकान तो थी लेकिन कांवड़ की उमंग उन्हें लगातार आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दे रही थी। चलते-चलते वे रामेश्वरम के निकट पहुँच गए। नगर में प्रवेश करने से पूर्व सभी साथियों ने निर्णय किया कि थोड़ी देर यहाँ विश्राम किया जाए। सभी विश्राम करने लगे।

उस जगह के नजदीक एक गधा भी लेटा हुआ था। तेज धूप और बीमारी की वजह से उसके पैरों में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह कुछ दूर चलकर पानी पी सके। एकनाथ और उसके सभी साथियों ने उसे देखा। सभी उसकी ऐसी स्थिति पर चर्चा करने लगे। कोई कहता, भगवान ने ये कैसा संसार बनाया है ? इस जीव को जीवन तो दे दिया लेकिन आज उसे इतनी शक्ति भी नहीं दी कि यह कुछ दूर चलकर पानी पी सके। दूसरा कहता, इसे प्यास लगी है। अगर कोई पशुओं के लिए यहाँ पानी की व्यवस्था करा दे तो उसे कितना पुण्य प्राप्त हो लेकिन इस प्राणी के भाग्य में तो पानी भी नहीं लिखा। सभी अपनी राय देकर स्थिति को कोस रहे थे।

एकनाथ ने उस गधे की स्थिति देखी और उन्होंने अपनी कांवड़ से पवित्र जल का पात्र खोला। वे उसे गधे के मुँह के पास ले गए और पूरा जल उसे पिला दिया। गर्मी के मौसम में ऐसा पवित्र जल पीकर उस जानवर की स्थिति में सुधार हुआ और वह उठकर चला गया। उसके नेत्रों में कृतज्ञता के आँसू थे।

कहा जाता है कि उस समय एकनाथ को ईश्वरीय वाणी सुनाई दी - एकनाथ, इस जीव पर दया कर तुमने महान पुण्य का कार्य किया है। तुमने उस प्राणी में साक्षात मेरे ही दर्शन किए हैं। मैं रामेश्वरम पहुँचने से पहले ही तुम्हारी कांवड़ स्वीकार करता हूँ।


शिक्षा
वास्तव में सभी धर्मों ने माना है कि जीवों की सेवा करना भी परमात्मा की ही सेवा करना है। जो इस सत्य को  समझकर अपने जीवन में उतार लेता है, उसे शीघ्र ईश्वरीय कृपा की प्राप्ति होती है।

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